साप्ताहिक व्रत कथाएं

भारत को अनेकता में एकता दर्शाने वाला देश कहा जाता है। यहां पर सर्वधर्म स्वभाव की संस्कृति अपनाई जाती है। प्रत्येक तीज-त्योहार को खुशियों के साथ मनाया जाता है। फिर चाहे वो दीवाली हो या रमदान, क्रिसमस हो या गुरुपर्व सभी को प्रेम भाईचारे के साथ मनाने की परंपरा है। कुछ त्योहार ऋतु औऱ मौसम के अनुसार मनाए जाते हैं औऱ कुछ पर्व किसी घटना विशेष की वजह से मनाए जाते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश में हर दिन कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। ये सभी पर्व किसी विशेष वर्ग, जाति, सम्प्रदाय द्वारा संपन्न किये जाते हैं।

त्योहारों का हमारे जीवन में बहुत खास महत्व है. प्रत्येक त्योहार हिंदू पंचाग के अनुसार, सामाजिक परिपेक्ष से नहीं बल्कि प्राकृतिक परिपेक्ष के आधार पर मनाए जाते हैं। वहीं किसी भी त्योहार को मनाने के पीछे कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी होती है और बिना कथा के कोई भी व्रत को पूरा नहीं माना जाता है। इसके अलावा हर त्योहार को मनाने के पीछे कई दंतकथाएं और पौराणिक व्रत कथाओं जुड़ी होती हैं। 

सोमवार व्रत कथा

एक बार किसी एक नगर में एक साहूकार था। उसके घर में धन की कोई संतान न होने के कारण वह बहुत दुखी था। संतान प्राप्ति के लिए वह हर सोमवार को व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करता था। उसकी भक्ति देखकर एक दिन मां पार्वती प्रसन्न होकर भगवान शिव से साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का निवेदन किया। पार्वती जी के आग्रह पर भगवान शिव ने कहा कि ‘हे पार्वती, इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है’ लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति देखकर उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा व्यक्त की। माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति  का वरदान तो दिया लेकिन उन्होंने बताया कि यह बालक 12 वर्ष तक ही जीवित रहेगा। 

माता पार्वती और भगवान शिव की बातचीत को साहूकार सुन रहा था, इसलिए उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही दुख। वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा। कुछ समय के बाद साहूकार की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया। साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन देते हुए कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ। तुम लोग रास्ते में यज्ञ कराते जाना और ब्राह्मणों को भोजन-दक्षिणा देते हुए जाना। दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी नगरी निकल पड़े। इस दौरान रात में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था, लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था। राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए सोचा क्यों न उसने साहूकार के पुत्र को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा। लड़के को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह करा दिया गया।

साहूकार का पुत्र ईमानदार था। उसे यह बात सही नहीं लगी इसलिए उसने अवसर पाकर राजकुमारी के दुपट्टे पर लिखा कि ‘तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है। मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं।’ जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई। राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया फिर बारात वापस चली गई। दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया। जिस दिन लड़का 12 साल का हुआ उस दिन भी यज्ञ का आयोजन था लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा कि तुम अंदर जाकर आराम कर लो। शिवजी के वरदानुसार कुछ ही देर में उस बालक के प्राण निकल गए। मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप करना शुरू किया। संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे। पार्वती माता ने भोलेनाथ से कहा- स्वामी, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा, आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें।

जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया था, अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव, आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। माता पार्वती के पुन: आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया। शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया। शिक्षा पूरी करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर वापस चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था। उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी खातिरदारी की और अपनी पुत्री को विदा किया।

इधर साहूकार और उसकी पत्नी भूखे-प्यासे रहकर बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए। उसी रात भगवान शिव ने साहूकार के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है। इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

सोमवार व्रत की आरती
जय शिव ओंकारा जय शिव ओंकारा |
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अर्दाडी धारा || टेक
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजे |
हंसानन गरुडासन बर्षवाहन साजै || जय
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अते सोहै |
तीनो रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहै || जय
अक्षयमाला वन माला मुंड माला धारी |
त्रिपुरारी कंसारी वर माला धारो || जय
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे |
सनकादिक ब्रह्मादिक भूतादिक संगे || जय
कर मे श्रेष्ठ कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता |
जग – कर्ता जग – हर्ता जग पालन कर्ता || जय
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका |
प्रणवाक्षर के मध्य ये तीनो एका || जय
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई गावे |
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे || जय
 
मंगलवार व्रत कथा

एक समय की बात है एक ब्राह्मण दंपत्ति की कोई संतान नहीं थी, जिस कारण वह बेहद दुखी थे। एक समय ब्राह्मण वन में हनुमान जी की पूजा के लिए गया। वहां उसने पूजा के साथ महावीर जी से एक पुत्र की कामना की।

घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्ति के लिए मंगलवार का व्रत करती थी। वह मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर ही भोजन करती थी।

एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पाई और ना ही हनुमान जी को भोग लगा सकी। उसने प्रण किया कि वह अगले मंगलवार को हनुमान जी को भोग लगाकर ही भोजन करेगी।

वह भूखी प्यासी छह दिन तक पड़ी रही। मंगलवार के दिन वह बेहोश हो गई। हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप ब्राह्मणी को एक पुत्र दिया और कहा कि यह तुम्हारी बहुत सेवा करेगा।

बालक को पाकर ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुई। उसने बालक का नाम मंगल रखा। कुछ समय उपरांत जब ब्राह्मण घर आया, तो बालक को देख पूछा कि वह कौन है?

पत्नी बोली कि मंगलवार व्रत से प्रसन्न होकर हनुमान जी ने उसे यह बालक दिया है। ब्राह्मण को अपनी पत्नी की बात पर विश्वास नहीं हुआ। एक दिन मौका देख ब्राह्मण ने बालक को कुएं में गिरा दिया।

घर पर लौटने पर ब्राह्मणी ने पूछा कि, मंगल कहां है? तभी पीछे से मंगल मुस्कुरा कर आ गया। उसे वापस देखकर ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गया। रात को हनुमानजी ने उसे सपने में दर्शन दिए और बताया कि यह पुत्र उसे उन्होंने ही दिया है।

ब्राह्मण सत्य जानकर बहुत खुश हुआ। इसके बाद ब्राह्मण दंपत्ति प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखने लगे।

जो मनुष्य मंगलवार व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है और नियम से व्रत रखता है उसे हनुमान जी की कृपा से सब कष्ट दूर होकर सर्व सुख प्राप्त होता है और हनुमान जी की दया के पात्र बनते हैं।

मंगलवार व्रत की आरती
आरती कीजै हनुमान लला की। 
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरवर काँपे। 
रोग दोष जाके निकट न झाँके॥
अंजनीपुत्र महा बलदाई। 
संतन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीड़ा रघुनाथ पठाए। 
लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंक सो कोट समुद्र सी खाई। 
जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। 
सियारामजी के काज सँवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। 
लाय संजीवन प्राण उबारे॥
पैठि पताल तोरि जम कारे। 
अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएँ भुजा असुर संहारे। 
दाहिने भुजा संत जन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। 
जै जै जै हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। 
आरति करत अंजना माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावै। 
बसि बैकुंठ परमपद पावै
 
बुधवार व्रत कथा

पौराणिक ग्रंथों में बुधवार के व्रत की कथा कुछ इस प्रकार है। बहुत समय पहले की बात है कि एक साहूकार का नया-नया विवाह हुआ था। उसकी पत्नी मायके गयी हुई थी। नया-नया विवाह था, नई-नई उमंग थी साहूकार का परिवार भी कुछ खास बड़ा नहीं था, जो रिश्तेदार थे उनके घर बहुत दूर थे। अब साहूकार को अकेलापन खाये जा रहा था। उससे रहा न गया और साहूकार जा पंहुचा ससुराल। साहूकार की बड़ी आवभगत हुई लेकिन ससुराल में तो अपनी पत्नी से खुलकर बात करना दूर सूरत देखना तक मुश्किल हो रहा था।

अगले ही दिन साहूकार ने कह दिया कि विदाई की तैयारी कर लीजिये हमें निकलना हैं। अब संयोगवश वह दिन था बुधवार का, सास-ससुर ने समझाने का प्रयास किया कि बेटा आज बुधवार का दिन है इस दिन बेटी की विदाई नहीं करने का रिवाज़ है। बिटाई की विदाई क्या किसी भी शुभ कार्य के लिये यात्रा पर जाना बुधवार के दिन शुभ नहीं माना जाता। लेकिन साहूकार नहीं माना और कहा मैं इन सब बातों को नहीं मानता आप हमें जाने का आशीर्वाद दीजिये। अब अपने दामाद के आगे सास-ससुर की कहां चलने वाली थी, मन मसोसकर तैयारी करनी पड़ी। बेटी की विदाई कर दी गई।

अब चलते-चलते रस्ते में साहूकार की पत्नी को प्यास लग जाती है। साहूकार जैसे पानी लेने के लिये जाता है तो वापस आते ही उसकी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं रहता। अपने ही हमशक्ल को गाड़ी में पत्नी की बगल में बैठे देखता है। उसकी पत्नी भी एक शक्ल के दो-दो व्यक्तियों को देखकर परेशानी में पड़ गई कि उसका पति कौनसा है। जैसे ही साहूकार ने पत्नी के पास बैठे व्यक्ति से पूछा कि वह कौन है तो पलट कर जवाब दिया कि भैया मैं तो फलां नगर का साहूकार हूं और फलां नगर से अपनी पत्नी को लेकर आ रहा हूं तुम बताओ तुम कौन हो जो मेरा वेश धर कर यहां आ कबाब में हड्डी बनने के लिये आ धमके हो। ऐसे बहस बाजी करते-करते दोनों में झगड़ा बढ़ गया।

झगड़े को देखते हुए राज्य के सिपाही वहां आ पंहुचे और साहूकार को पकड़ लिया। अब सिपाही भी चक्कर में कि दोनों की शक्ल तो एक समान है। उन्होंने साहूकार की पत्नी से पूछा कि उसका पति इनमें से कौनसा है वह बेचारी क्या जवाब देती। तब साहूकार ने हाथ जोड़ लिये और भगवान से विनती करने लगा कि हे भगवन यह आपकी क्या माया है। तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख याद कर कुछ देर पहले ही तूने अपने सास-ससुर की आज्ञा न मानकर भगवान बुध का अपमान किया और बुधवार के दिन तू अपनी पत्नी को लेकर चल पड़ा जबकि तुझे इस दिन गमन नहीं करना चाहिये था। यह स्वयं बुध देव हैं जो तुम्हें सबक सिखाने के लिये तुम्हारे वेश में हैं।

तब साहूकार ने कान पकड़ कर माफी मांगी और आगे से कभी भी ऐसा न करने का वचन किया और बुधवार को नियमपूर्वक व्रत पालन करने का संकल्प किया। तब जाकर साहूकार के रूप में प्रकट हुए बुध देवता अंतर्ध्यान हुए और साहूकार अपनी पत्नी को लेकर घर जा सका। इस घटना के पश्चात साहूकार और उसकी पत्नी दोनों नियमित रूप से बुधवार का व्रत पालन करने लगे।

मान्यता है कि जो भी व्यक्ति इस कथा को कहता है या सुनता है या फिर पढ़ता है उसे बुधवार के दिन यात्रा करने से किसी तरह का दोष नहीं लगता और समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। बुध ग्रह की शांति और सर्व-सुख के इच्छुक स्त्री-पुरुष बुधवार के इस व्रत कर सकते हैं। ज्ञान, बुद्धि, कार्य, व्यापार आदि में उन्नति के लिये भी बुधवार का व्रत बेहद शुभ और फलदायी माना जाता है। बुधवार के दिन बुद्ध देवता के साथ-साथ भगवान गणेश जी की पूजा का विधान भी है।

बुधवार व्रत की आरती
आरती युगलकिशोर की कीजै। 
तन मन धन न्योछावर कीजै॥
गौरश्याम मुख निरखन लीजै। 
हरि का रूप नयन भरि पीजै॥
रवि शशि कोटि बदन की शोभा। 
ताहि निरखि मेरो मन लोभा॥
ओढ़े नील पीत पट सारी। 
कुंजबिहारी गिरिवरधारी॥
फूलन सेज फूल की माला। 
रत्न सिंहासन बैठे नंदलाला॥
कंचन थार कपूर की बाती। 
हरि आए निर्मल भई छाती॥
श्री पुरुषोत्तम गिरिवरधारी। 
आरती करें सकल नर नारी॥
नंदनंदन बृजभान किशोरी। 
परमानंद स्वामी अविचल जोरी॥
 
गुरुवार / बृहस्पतिवार व्रत कथा

प्राचीन काल की बात है. किसी राज्य में एक बड़ा प्रतापी और दानी राजा राज करता था. वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं भूखे और गरीबों को दान देकर पुण्य प्राप्त करता था, परंतु यह बात उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी. वह न तो व्रत करती थी, न ही किसी को एक भी पैसा दान में देती थी और राजा को भी ऐसा करने से मना करती थी.

एक समय की बात है, राजा शिकार खेलने के लिए वन चले गए थे. घर पर रानी और दासी थी. उसी समय गुरु बृहस्पतिदेव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए. साधु ने जब रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं. आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे कि सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं.

बृहस्पतिदेव ने कहा, हे देवी, तुम बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी होता है. अगर अधिक धन है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग-बगीचे का निर्माण कराओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें. परंतु साधु की इन बातों से रानी को खुशी नहीं हुई. उसने कहा कि मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे मैं दान दूं और जिसे संभालने में मेरा सारा समय नष्ट हो जाए.

तब साधु ने कहा- यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो मैं जैसा तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना. गुरुवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहां धुलने डालना. इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जाएगा. इतना कहकर साधु रुपी बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए.

साधु के अनुसार कही बातों को पूरा करते हुए रानी को केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई. भोजन के लिए राजा का परिवार तरसने लगा. तब एक दिन राजा ने रानी से बोला कि हे रानी, तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूं, क्योंकि यहां पर सभी लोग मुझे जानते हैं. इसलिए मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता. ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया. वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता. इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा. इधर, राजा के परदेश जाते ही रानी और दासी दुखी रहने लगी.

एक बार जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा- हे दासी, पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है. वह बड़ी धनवान है. तू उसके पास जा और कुछ ले आ, ताकि थोड़ी-बहुत गुजर-बसर हो जाए. दासी रानी की बहन के पास गई.

उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी. दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई और उसे क्रोध भी आया. दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी. सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा. उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परंतु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी.

कथा सुनकर और पूजन समाप्त करके वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी- हे बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी. तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी परंतु जब तक कथा होती है, तब तक न तो उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली. कहो दासी क्यों गई थी.

रानी बोली- बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने तक को अनाज नहीं था. ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई. उसने दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने तक की बात अपनी बहन को विस्तारपूर्वक सूना दी. रानी की बहन बोली- देखो बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं. देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो.

पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ पर बहन के आग्रह करने पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा तो उसे सचमुच अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया. यह देखकर दासी को बड़ी हैरानी हुई. दासी रानी से कहने लगी- हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते हैं, इसलिए क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाए, ताकि हम भी व्रत कर सकें. तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा.

उसकी बहन ने बताया, बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें. इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं. व्रत और पूजन विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई.

सात दिन के बाद जब गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने व्रत रखा. घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं. फिर उससे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया. अब पीला भोजन कहां से आए इस बात को लेकर दोनों बहुत दुखी थे. चूंकि उन्होंने व्रत रखा था इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे. इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दासी को दे गए. भोजन पाकर दासी प्रसन्न हुई और फिर रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया.

उसके बाद वे सभी गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगी. बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई, परंतु रानी फिर से पहले की तरह आलस्य करने लगी. तब दासी बोली- देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया और अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से धन मिला है तो तुम्हें फिर से आलस्य होता है.

रानी को समझाते हुए दासी कहती है कि बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराना चाहिए, और धन को शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे. दासी की बात मानकर रानी अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करने लगी, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैलने लगा.

बृहस्पतिवार व्रत कथा के बाद श्रद्धा के साथ आरती की जानी चाहिए. इसके बाद प्रसाद बांटकर उसे ग्रहण करना चाहिए.

बृहस्पतिवार व्रत की आरती
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा।
छिन-छिन भोग लगाऊं, कदली फल मेवा।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
तुम पूर्ण परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
सकल मनोरथ दायक, सब संशय तारो।
विषय विकार मिटाओ, संतन सुखकारी।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
जो कोई आरती तेरी प्रेम सहित गावे।
जेष्टानंद बंद सो-सो निश्चय पावे।।
ॐ जय बृहस्पति देवा।।
 
शुक्रवार व्रत कथा

पौराणिक मान्यता के अनुसार, एक बुढ़िया थी जिसके सात बेटे थे। सातों भाइयों में से एक बहुत ही निक्कमा था तो बाकि बहुत ही काबिल व मेहनती थे। इसलिए बुढ़िया हमेसा निक्कमे बेटे को बाकि 6 भाइयों का झूठा खिलाती थी। एक दिन निक्कमे बेटे की पत्नी ने कहा कि तुम्हारी मां तुम्हारे साथ बहुत भेदभाव करती है पर उसे यकीन नहीं हुआ। एक दिन सच जानने क लिए सिरदर्द का बहाना कर वह रसोई में ही चादर ओढ़कर लेट गया। माता हमेशा की तरह जब 6 भाइयों को खाना खिला चुकी तो सातवें के लिए सबकी झूठन से खाना परोस सातवें बेटे को उठाने लगी। माता के इस कृत्य को देखकर उसने भोजन नहीं किया और घर छोड़कर परदेश चला गया. जब वह जाने को तैयार हुआ तो पत्नी का ख्याल आया जो पशुओं के बाड़े में गोबर के उपले बना रही थी। उसने अपने जाने के बारे में बताते हुए कहा

हम जावे परदेश आवेंगे कुछ काल,
तुम रहियों संतोष से धर्म आपनो पाल
वहीं पत्नी ने भी इसी लहजे में जवाब देते हुए कहा कि -
जाओ पिया आनन्द से हमारी सोच हटाय
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय
दो निशानी आपने देख धरू से धीर,
सुधि मति हमारी बिसारियों रखियों मन गंभीर

अब निशानी मांतो कहा कि मेरे पास तो तुम्हें देने के लिेए कुछ भी नहीं है सिर्फ यह अँगूठी हैं यही रख लो। साथ ही उसने पत्नी से भी निशानी मांगी तो उसने कहा कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है यह गोबर से सने हाथ हैं उनकी छाप ही साथ ले जाओं। अब पीठ पर पत्नी के हाथों से बनी गोबर की छाप लिए वह चल पड़ा। परदेश में पहुंच गया। अपनी हालत का जिक्र एक सेठ से किया और नौकरी मांगी, सेठ ने भी रख लिया बात पैसों की हुई तो सेठ ने कहा जैसा काम वैसे दाम। अब वक्त आदमी को होशियार बना ही देता है। धीरे - धीरे वह कामकाज में माहिर हो गया। सेठ के बाकि नौकर चाकर भी उसकी होशियारी के मुरीद होने लगे साथ उससे कई लोग जलने भी लगे। सेठ ने भी भांप लिया कि बंदा काम का है। धीरे-धीरे सेठ ने उसे अपना बहीखाता संभालने का जिम्मा दे दिया और उसकी ईमानदारी से खुश होकर एक समय बाद सेठ ने उसे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया।

उधर उसकी पत्नी की बहुत दुर्दशा हो रखी थी, उसकी सास, जेठानियों ने उसका जीना हराम कर रखा था। एक तो घर का सारा काम उससे करवाती ऊपर से खाने को भी घास-फूस की रोटी मिल जाती तो गनीमत होती। एक दिन वह पास के वन से लड़कियां लेने गई तो उसने देखा कि कुछ महिलाएं वहां कथा कह रही हैं। जब उसने महिलाओं से पूछा कि यह व्रत कथा किसकी है तो उन्होंने बताया कि संतोषी माता की व्रत कथा कह रही हैं। उसने पूछा कि उसे भी इस व्रत की विधि बताएं। अब उसे रास्ते में मंदिर भी दिखाई दिया वह माता के चरणों में लेट गई और कहने लगी कि हे मां! मैं क्या करूं, मेरा कल्याण करो मां। मां ने भी उसकी पुकार सुनी। वह लकड़ियों को बेचकर प्रसाद के लिए गुड़ चना लाई और शुक्रवार का उपवास किया व व्रतकथा भी सुनी। कुछ ही दिनों में उसे पति की चिट्ठी मिली साथ ही पैसे भी आने लगे। अब वह हर शुक्रवार को उपवास करने लगी। फिर उसने मां से गुहार लगाई कि हे मां, मुझे मेरे स्वामी से मिला दे। तब स्वयं मां एक वृद्धा का भेष धारण कर उसके पति के पास पहुंची और उसे पूचा कि उसका कोई घरबार है या नहीं।

उसने बताया कि सब कुछ है लेकिन इस काम को छोड़कर कैसे जाऊं? तब वृद्धा ने कहा कि तुम मां संतोषी के नाम का दिया जलाकर कल सुबह दुकान पर बैठना शाम तक तुम्हारा सारा हिसाब-किताब हो जाएगा और सामान भी बिक जाएगा। उसने ऐसा ही किया माता के वरदान से वह शाम के समय कपड़े गहने खरीदकर अपने गांव चल दिया। उधर उसकी पत्नी नित्य की तरह माता के मंदिर में माता से बातें कर रही थी," हे मां, मेरे स्वामी कब आएंगे तो उसने कहा बेटी तुम्हारे पास जो लकड़ियां हैं इनकी तीन गठरियां बना ले एक को नदी किनारे छोड़ दो, एक को यहां मंदिर में और एक को अपने घर जाकर पटककर कहना कि लो लकड़ियां दो भूसे की रोटी। माता के कहने पर उसने भी वैसा ही किया। उधर से जब उसका पति लौट रहा था तो नदीं पार करते हुए ही सूखी लकड़ियां दिखाई थी, सफर से थकान हो गई थी और भूख भी लग आयी थी। उसने आग जलाई और भोजन का प्रबंध किया और खापीकर घर की ओर रवाना हुआ। जब वह घर पहुंचा तो उसने सुना कि उसकी पत्नी ने लकड़ियों का गट्ठर आंगन में पटकर कहा कि लो सासूजी लकड़ियों का गठ्ठर लो और भूसे की रोटी दो। पति ने स्वर सुना तो वह बाहर आया अपनी पत्नी की हालत देखकर उसे बहुत दुख हुआ।

अपनी मां से पूछा कि इसकी ऐसी हालात क्यों हुई तो मां ने कहा कि कामधाम कुछ करती नहीं, गावंभर में भटकती रहती है। पर वह अपने साथ हुए अन्याय को भी भूला नहीं था उसने दूसरे घर की चाभी मांगी और अलग रहने लगा। अब तो मां संतोषी की कृपा से उसके दिन बहुर गए। फिर वह शुक्रवार भी आया जिसमें माता का उद्यापन करना था। पूरी तैयार कर ली गई उसने अपनी जेठानी के बच्चों को बुलाया, लेकिन जेठानी ने अपने बच्चों को पूरी तरह सीख देकर भेजा कि भोजन के समय खटाई मांगना। अब बच्चे भोजन के बाद खट्टी चीज के लिए जिद करने लगे तो उसने मना करते हुए माता का प्रसाद और पैसे बच्चों को दे दिए। उन्हीं पैसों से बच्चों ने खट्टी चीज खरीद ली और उसे खा लिया। इस प्रकार व्रत का उद्यापन पूरा नहीं हो पाया और मां संतोषी रुष्ट हो गई। बहु के पति को राजा के सैनिक पकड़कर ले गए। जेठ-जेठानी फिर से ताने मारने लगे, लोगों को लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लिया, अब जेल में सड़ेगा तो पता चलेगा।

बहु से यह सब सहन नहीं हुआ और मां के चरणों में जा पहुंची और कहने लगी। मां मुझे और मेरे पति को किस बात की सजा दे रही हो। माता कहने लगी बेटी तूने उद्यापन पूरा नहीं किया इस वजह से तुम्हें यह सब सहन करना पड़ रहा है। अब दोबार उद्यापन करों और इस बार कोई गलती मत करना। बहु का पति वापस लौट आया और अगले शुक्रवार को विधिपूर्वक फिर से उद्यापन किया और इस बार कोई भी भूल नहीं की और ब्राह्मण के लड़के को बुलाकर व्रत का उद्यापन किया। इस बार पैसों की जगह फल दिए और उसका उद्यापन पूरा हुआ। मां संतोषी की कृपा से जल्द ही बहू ने एक सुंदर से पुत्र को जन्म दिया और बहु को देखकर पूरे परिवार ने संतोषी माता का विधिवत पूजन करना शुरू कर दिया और उनका परिवार सुख से जीवन बिताने लगा।

शुक्रवार व्रत की आरती
जय सन्तोषी माता, मैया जय सन्तोषी माता ।
अपने सेवक जन की सुख सम्पति दाता ।
मैया जय सन्तोषी माता ।
सुन्दर चीर सुनहरी माँ धारण कीन्हो
मैया माँ धारण कींहो
हीरा पन्ना दमके तन शृंगार कीन्हो
मैया जय सन्तोषी माता ।
गेरू लाल छटा छबि बदन कमल सोहे
मैया बदन कमल सोहे
मंद हँसत करुणामयि त्रिभुवन मन मोहे
मैया जय सन्तोषी माता ।
स्वर्ण सिंहासन बैठी चँवर डुले प्यारे
मैया चँवर डुले प्यारे
धूप दीप मधु मेवा, भोज धरे न्यारे
मैया जय सन्तोषी माता ।
गुड़ और चना परम प्रिय ता में संतोष कियो
मैया ता में सन्तोष कियो
संतोषी कहलाई भक्तन विभव दियो
मैया जय सन्तोषी माता ।
शुक्रवार प्रिय मानत आज दिवस सो ही,
मैया आज दिवस सो ही
भक्त मंडली छाई कथा सुनत मो ही
मैया जय सन्तोषी माता ।
मंदिर जग मग ज्योति मंगल ध्वनि छाई
मैया मंगल ध्वनि छाई
बिनय करें हम सेवक चरनन सिर नाई
मैया जय सन्तोषी माता ।
भक्ति भावमय पूजा अंगीकृत कीजै
मैया अंगीकृत कीजै
जो मन बसे हमारे इच्छित फल दीजै
मैया जय सन्तोषी माता ।
दुखी दरिद्री रोगी संकट मुक्त किये
मैया संकट मुक्त किये
बहु धन धान्य भरे घर सुख सौभाग्य दिये
मैया जय सन्तोषी माता ।
ध्यान धरे जो तेरा वाँछित फल पायो
मनवाँछित फल पायो
पूजा कथा श्रवण कर घर आनन्द आयो
मैया जय सन्तोषी माता ।
चरण गहे की लज्जा रखियो जगदम्बे
मैया रखियो जगदम्बे
संकट तू ही निवारे दयामयी अम्बे
मैया जय सन्तोषी माता ।
सन्तोषी माता की आरती जो कोई जन गावे
मैया जो कोई जन गावे
ऋद्धि सिद्धि सुख सम्पति जी भर के पावे
मैया जय सन्तोषी माता ।
 
शनिवार व्रत कथा

एक समय स्वर्गलोक में 'सबसे बड़ा कौन?' के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुँचे और बोले- 'हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है?' देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए।

इंद्र बोले- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूँ। हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं। देवराज इंद्र सहित सभी ग्रह (देवता) उज्जयिनी नगरी पहुँचे। महल में पहुँचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुँच सकती थी।

अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।

देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- 'आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है।' राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- 'राजा विक्रमादित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।'

शनि ने कहा- 'सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हूँ। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है।

राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा।' इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहाँ से विदा हुए। राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे।

विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुँचे। राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा। घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया। घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुए तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा।

तेजी से दौड़ता घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहाँ गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उन्हें लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला।

राजा ने उससे पानी माँगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अँगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुँचा। राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूँ। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई।

सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और खुश होकर उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूँटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया।

तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूँटी निगल गई। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूँटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।

कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हाँकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई।

राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई। अतः उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।

राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गए। रानी ने मोहिनी को समझाया- 'बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?' राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।

आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- 'राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है।' राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- 'हे शनिदेव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।'

शनिदेव ने कुछ सोचकर कहा- 'राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पाँव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पाँव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।

सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुँचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहाँ एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूँटी ने हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुँचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें।

राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएँ शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे।

शनिवार व्रत की आरती
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी ।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी ॥
॥ जय जय श्री शनिदेव..॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी ।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी ॥
॥ जय जय श्री शनिदेव..॥
क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी ।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी ॥
॥ जय जय श्री शनिदेव..॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी ।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी ॥
॥ जय जय श्री शनिदेव..॥
देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी ।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥
॥ जय जय श्री शनिदेव..॥
 
रविवार व्रत कथा

प्राचीन काल में एक बुढ़िया रहती थी। वह नियमित रूप से रविवार का व्रत करती। रविवार के दिन सूर्योदय से पहले उठकर बुढ़िया स्नानादि से निवृत्त होकर आंगन को गोबर से लीपकर स्वच्छ करती, उसके बाद सूर्य भगवान की पूजा करते हुए रविवार व्रत कथा सुनकर सूर्य भगवान का भोग लगाकर दिन में एक समय भोजन करती। सूर्य भगवान की अनुकंपा से बुढ़िया को किसी प्रकार की चिंता एवं कष्ट नहीं था। धीरे-धीरे उसका घर धन-धान्य से भर रहा था।

उस बुढ़िया को सुखी होते देख उसकी पड़ोसन उससे जलने लगी। बुढ़िया ने कोई गाय नहीं पाल रखी थी। अतः वह अपनी पड़ोसन के आंगन में बंधी गाय का गोबर लाती थी। पड़ोसन ने कुछ सोचकर अपनी गाय को घर के भीतर बांध दिया। रविवार को गोबर न मिलने से बुढ़िया अपना आंगन नहीं लीप सकी। आंगन न लीप पाने के कारण उस बुढ़िया ने सूर्य भगवान को भोग नहीं लगाया और उस दिन स्वयं भी भोजन नहीं किया। सूर्यास्त होने पर बुढ़िया भूखी-प्यासी सो गई।

प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उस बुढ़िया की आंख खुली तो वह अपने घर के आंगन में सुंदर गाय और बछड़े को देखकर हैरान हो गई। गाय को आंगन में बांधकर उसने जल्दी से उसे चारा लाकर खिलाया। पड़ोसन ने उस बुढ़िया के आंगन में बंधी सुंदर गाय और बछड़े को देखा तो वह उससे और अधिक जलने लगी। तभी गाय ने सोने का गोबर किया। गोबर को देखते ही पड़ोसन की आंखें फट गईं।

पड़ोसन ने उस बुढ़िया को आसपास न पाकर तुरंत उस गोबर को उठाया और अपने घर ले गई तथा अपनी गाय का गोबर वहां रख आई। सोने के गोबर से पड़ोसन कुछ ही दिनों में धनवान हो गई। गाय प्रति दिन सूर्योदय से पूर्व सोने का गोबर किया करती थी और बुढ़िया के उठने के पहले पड़ोसन उस गोबर को उठाकर ले जाती थी।

बहुत दिनों तक बुढ़िया को सोने के गोबर के बारे में कुछ पता ही नहीं चला। बुढ़िया पहले की तरह हर रविवार को भगवान सूर्यदेव का व्रत करती रही और कथा सुनती रही। लेकिन सूर्य भगवान को जब पड़ोसन की चालाकी का पता चला तो उन्होंने तेज आंधी चलाई। आंधी का प्रकोप देखकर बुढ़िया ने गाय को घर के भीतर बांध दिया। सुबह उठकर बुढ़िया ने सोने का गोबर देखा उसे बहुत आश्चर्य हुआ।

उस दिन के बाद बुढ़िया गाय को घर के भीतर बांधने लगी। सोने के गोबर से बुढ़िया कुछ ही दिन में बहुत धनी हो गई। उस बुढ़िया के धनी होने से पड़ोसन बुरी तरह जल-भुनकर राख हो गई और उसने अपने पति को समझा-बुझाकर उसे नगर के राजा के पास भेज दिया। सुंदर गाय को देखकर राजा बहुत खुश हुआ। सुबह जब राजा ने सोने का गोबर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
उधर सूर्य भगवान को भूखी-प्यासी बुढ़िया को इस तरह प्रार्थना करते देख उस पर बहुत करुणा आई। उसी रात सूर्य भगवान ने राजा को स्वप्न में कहा, राजन, बुढ़िया की गाय व बछड़ा तुरंत लौटा दो, नहीं तो तुम पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ेगा. तुम्हारा महल नष्ट हो जाएगा। सूर्य भगवान के स्वप्न से बुरी तरह भयभीत राजा ने प्रातः उठते ही गाय और बछड़ा बुढ़िया को लौटा दिया।

राजा ने बहुत-सा धन देकर बुढ़िया से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। राजा ने पड़ोसन और उसके पति को उनकी इस दुष्टता के लिए दंड दिया। फिर राजा ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि सभी स्त्री-पुरुष रविवार का व्रत किया करें। रविवार का व्रत करने से सभी लोगों के घर धन-धान्य से भर गए, राजतय में चारों ओर खुशहाली छा गई। स्त्री-पुरुष सुखी जीवन यापन करने लगे तथा सभी लोगों के शारीरिक कष्ट भी दूर हो गए।

श्री सूर्य देव की आरती
जय जय जय रविदेव, जय जय जय रविदेव।
जय जय जय रविदेव, जय जय जय रविदेव॥
रजनीपति मदहारी, शतदल जीवनदाता।
षटपद मन मुदकारी, हे दिनमणि दाता॥
जग के हे रविदेव, जय जय जय रविदेव।
जय जय जय रविदेव, जय जय जय रविदेव॥
नभमंडल के वासी, ज्योति प्रकाशक देवा।
निज जन हित सुखरासी, तेरी हम सबें सेवा॥
करते हैं रविदेव, जय जय जय रविदेव।
जय जय जय रविदेव, जय जय जय रविदेव॥
कनक बदन मन मोहित, रुचिर प्रभा प्यारी।
निज मंडल से मंडित, अजर अमर छविधारी॥
हे सुरवर रविदेव, जय जय जय रविदेव।
जय जय जय रविदेव, जय जय जय रविदेव॥
श्री रविवार की आरती
कहुं लगि आरती दास करेंगे,
सकल जगत जाकि जोति विराजे।
सात समुद्र जाके चरण बसे,
काह भयो जल कुंभ भरे हो राम।
कोटि भानु जाके नख की शोभा,
कहा भयो मंदिर दीप धरे हो राम।
भार अठारह रामा बलि जाके,
कहा भयो शिर पुष्प धरे हो राम।
छप्पन भोग जाके प्रतिदिन लागे,
कहा भयो नैवेद्य धरे हो राम।
अमित कोटि जाके बाजा बाजें,
कहा भयो झनकारा करे हो राम।
चार वेद जाके मुख की शोभा,
कहा भयो ब्रह्मावेद पढ़े हो राम।
शिव सनकादिक आदि ब्रह्मादिक,
नारद मुनि जाको ध्यान धरे हो राम।
हिम मंदार जाके पवन झकोरें,
कहा भयो शिव चंवर ढुरे हो राम।
लख चौरासी बंध छुड़ाए,
केवल हरियश नामदेव गाए हो राम।