देव चालीसा संग्रह

प्रतिदिन चालीसा का पाठ करने से हमारा अध्यात्मिक बल बढ़ता है। अध्यात्मिक बल से ही है हम जीवन की हर परेशानी से लड़ सकते हैं। अध्यात्मिक बल के सहारे ही हम शारीरिक रोगों पर भी विजय पा सकते हैं। चालीसा का पाठ आपको हर तरह के भय और तनाव से मुक्ति दिलाता है।
नित्य चालीसा पढ़ने से पवि‍त्रता की भावना का विकास होता है हमारा मनोबल बढ़ता है। उल्लेखनीय है कि जनता कर्फ्यू के दौरान घंटी या ताली बजाना या लॉकडाउन के दौरान दीप जलाना, रोशनी करना यह सभी व्यक्ति के निराश के अंधेरे से निकालकर मनोबल को बढ़ाने वाले ही उपाय थे। मनोबल ऊंचा रहेगा तो सभी संकटों से निजात मिलेगी।
प्रतिदिन चालीसा का पाठ करने से अकारण भय व तनाव मिटता है, हर तरह का रोग मिटता है, हर तरह का संकट मिटता है, बंधन मुक्ति का उपाय है, नकारात्मक प्रभाव दूर होते हैं, सकारात्मक ऊर्जा व्यक्ति को दीर्घजीवी बनाती है, ग्रहों के दुश्प्रभाव दूर होते हैं, घर का कलह मिटता है, बुराइयों से दूर करती है चालीसा, नित्य चालीसा बढ़ने से आपमें आध्यात्मिक बल, आत्मिक बल और मनोबल बढ़ता है। इसे पवित्रता की भावना महसूस होती है। शरीर में हल्कापन लगता है और व्यक्ति खुद को निरोगी महसूस करता है। इससे भय, तनाव और असुरक्षा की भावना हट जाती है। जीवन में यही सब रोग और शोक से मुक्त होने के लिए जरूरी है।

 श्री गणेश चालीसा
जय गणपति सद्गुण सदन कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण जय जय गिरिजालाल॥
जय जय जय गणपति राजू। मंगल भरण करण शुभ काजू॥
जयगजबदन सदन सुखदाता। विश्वविनायक बुद्धि विधाता॥
वक्रतुण्ड शुचिशुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मनभावन॥
राजितमणि मुक्तन उरमाला। स्वर्णमुकुट शिरनयन विशाला॥
पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥
सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनिमन राजित॥
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता। गौरी ललन विश्व-विधाता॥
ऋद्धि सिद्धि तव चँवर डुलावे। मूषक वाहन सोहत द्वारे॥
कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी। अतिशुचि पावन मंगलकारी॥
एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरि द्विज रूपा।
अतिथि जानि कै गौरी सुखारी। बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥
अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥
मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण यहि काला॥
गणनायक गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम रूप भगवाना॥
अस कहि अन्तर्धान रूप ह्वै। पलना पर बालक स्वरूप ह्वै॥
बनि शिशुरुदन जबहि तुमठाना। लखि मुखसुख नहिं गौरिसमाना॥
सकल मगन सुखमंगल गावहिं। नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं॥
शम्भु उमा बहुदान लुटावहिं। सुरमुनिजन सुत देखन आवहिं॥
लखि अति आनन्द मंगलसाजा। देखन भी आए शनिराजा॥
निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक देखन चाहत नाहीं॥
गिरजा कछु मन भेद बढ़ायो। उत्सव मोर न शनि तुहि भायो॥
कहन लगे शनि मन सकुचाई। का करिहौ शिशु मोहि दिखाई॥
नहिं विश्वास उमा कर भयऊ। शनि सों बालक देखन कह्यऊ॥
पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा। बालक शिर उड़ि गयो आकाशा॥
गिरजा गिरीं विकल ह्वै धरणी। सो दुख दशा गयो नहिं वरणी॥
हाहाकार मच्यो कैलाशा। शनि कीन्ह्यों लखि सुत को नाशा॥
तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाए। काटि चक्र सो गज शिर लाए॥
बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण मन्त्र पढ़ शंकर डारयो॥
नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे॥
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी की प्रदक्षिणा लीन्हा॥
चले षडानन भरमि भुलाई। रची बैठ तुम बुद्धि उपाई॥
चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥
धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई। शेष सहस मुख सकै न गाई॥
मैं मति हीन मलीन दुखारी। करहुँ कौन बिधि विनय तुम्हारी॥
भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। लख प्रयाग ककरा दुर्वासा॥
अब प्रभु दया दीन पर कीजै। अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥
दोहा
श्री गणेश यह चालीसा पाठ करें धर ध्यान।
नित नव मंगल गृह बसै लहे जगत सन्मान॥
सम्वत् अपन सहस्र दश ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरण चालीसा भयो मंगल मूर्ति गणेश॥
 
श्री शिव चालीसा
दोहा
श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
चौपाई
जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहिजात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा।  तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥
दोहा
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥
 
श्री हनुमान चालीसा
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।। 
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।। 
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा।।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
कांधे मूंज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बन्दन।।
विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचंद्र के काज संवारे।।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना।।
जुग सहस्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डर ना।।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।।
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा।।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै।।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।।
साधु-संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे।।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम-जनम के दुख बिसरावै।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।। 
दोहा
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
 
श्री शनि चालीसा
दोहा
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
चौपाई
जयति जयति शनिदेव दयाला।
करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै।
माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥
परम विशाल मनोहर भाला।
टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके।
हिय माल मुक्तन मणि दमके॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा।
पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥
पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन।
यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥
सौरी, मन्द, शनी, दश नामा।
भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥
जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं।
रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥
पर्वतहू तृण होई निहारत।
तृणहू को पर्वत करि डारत॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो।
कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई।
मातु जानकी गई चुराई॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा।
मचिगा दल में हाहाकारा॥
रावण की गति-मति बौराई।
रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥
दियो कीट करि कंचन लंका।
बजि बजरंग बीर की डंका॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा।
चित्र मयूर निगलि गै हारा॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी।
हाथ पैर डरवायो तोरी॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो।
तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥
विनय राग दीपक महं कीन्हयों।
तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी।
आपहुं भरे डोम घर पानी॥
तैसे नल पर दशा सिरानी।
भूंजी-मीन कूद गई पानी॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई।
पारवती को सती कराई॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा।
नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी।
बची द्रौपदी होति उघारी॥
कौरव के भी गति मति मारयो।
युद्ध महाभारत करि डारयो॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला।
लेकर कूदि परयो पाताला॥
शेष देव-लखि विनती लाई।
रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना।
जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी।
सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं।
हय ते सुख सम्पति उपजावैं॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा।
सिंह सिद्धकर राज समाजा॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै।
मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी।
चोरी आदि होय डर भारी॥
तैसहि चारि चरण यह नामा।
स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं।
धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥
समता ताम्र रजत शुभकारी।
स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै।
कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला।
करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई।
विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत।
दीप दान दै बहु सुख पावत॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा।
शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥
दोहा
पाठ शनिश्चर देव को, की हों 'भक्त' तैयार।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥
 
प्रभु श्रीराम चालीसा
चौपाई
श्री रघुवीर भक्त हितकारी। 
सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
निशिदिन ध्यान धरै जो कोई। 
ता सम भक्त और नहिं होई॥
ध्यान धरे शिवजी मन माहीं। 
ब्रह्म इन्द्र पार नहिं पाहीं॥
दूत तुम्हार वीर हनुमाना। 
जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना॥
तब भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला। 
रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥
तुम अनाथ के नाथ गुंसाई। 
दीनन के हो सदा सहाई॥
ब्रह्मादिक तव पारन पावैं। 
सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥
चारिउ वेद भरत हैं साखी। 
तुम भक्तन की लज्जा राखीं॥
गुण गावत शारद मन माहीं। 
सुरपति ताको पार न पाहीं॥
नाम तुम्हार लेत जो कोई। 
ता सम धन्य और नहिं होई॥
राम नाम है अपरम्पारा। 
चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥
गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो। 
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो॥
शेष रटत नित नाम तुम्हारा। 
महि को भार शीश पर धारा॥
फूल समान रहत सो भारा। 
पाव न कोऊ तुम्हरो पारा॥
भरत नाम तुम्हरो उर धारो। 
तासों कबहुं न रण में हारो॥
नाम शक्षुहन हृदय प्रकाशा। 
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा॥
लखन तुम्हारे आज्ञाकारी। 
सदा करत सन्तन रखवारी॥
ताते रण जीते नहिं कोई। 
युद्घ जुरे यमहूं किन होई॥
महालक्ष्मी धर अवतारा। 
सब विधि करत पाप को छारा॥
सीता राम पुनीता गायो। 
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो॥
घट सों प्रकट भई सो आई। 
जाको देखत चन्द्र लजाई॥
सो तुमरे नित पांव पलोटत। 
नवो निद्घि चरणन में लोटत॥
सिद्घि अठारह मंगलकारी। 
सो तुम पर जावै बलिहारी॥
औरहु जो अनेक प्रभुताई। 
सो सीतापति तुमहिं बनाई॥
इच्छा ते कोटिन संसारा। 
रचत न लागत पल की बारा॥
जो तुम्हे चरणन चित लावै। 
ताकी मुक्ति अवसि हो जावै॥
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा। 
नर्गुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा॥
सत्य सत्य जय सत्यव्रत स्वामी। 
सत्य सनातन अन्तर्यामी॥
सत्य भजन तुम्हरो जो गावै। 
सो निश्चय चारों फल पावै॥
सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं। 
तुमने भक्तिहिं सब विधि दीन्हीं॥
सुनहु राम तुम तात हमारे। 
तुमहिं भरत कुल पूज्य प्रचारे॥
तुमहिं देव कुल देव हमारे।
तुम गुरु देव प्राण के प्यारे॥
जो कुछ हो सो तुम ही राजा। 
जय जय जय प्रभु राखो लाजा॥
राम आत्मा पोषण हारे। 
जय जय दशरथ राज दुलारे॥
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा। 
नमो नमो जय जगपति भूपा॥
धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा। 
नाम तुम्हार हरत संतापा॥
सत्य शुद्घ देवन मुख गाया। 
बजी दुन्दुभी शंख बजाया॥
सत्य सत्य तुम सत्य सनातन। 
तुम ही हो हमरे तन मन धन॥
याको पाठ करे जो कोई। 
ज्ञान प्रकट ताके उर होई॥
आवागमन मिटै तिहि केरा। 
सत्य वचन माने शिर मेरा॥
और आस मन में जो होई। 
मनवांछित फल पावे सोई॥
तीनहुं काल ध्यान जो ल्यावै। 
तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै॥
साग पत्र सो भोग लगावै। 
सो नर सकल सिद्घता पावै॥
अन्त समय रघुबरपुर जाई। 
जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥
श्री हरिदास कहै अरु गावै। 
सो बैकुण्ठ धाम को पावै॥
दोहा
सात दिवस जो नेम कर, पाठ करे चित लाय।
हरिदास हरि कृपा से, अवसि भक्ति को पाय॥
राम चालीसा जो पढ़े, राम चरण चित लाय।
जो इच्छा मन में करै, सकल सिद्घ हो जाय॥
 
श्री कृष्ण चालीसा
दोहा
बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुणअधरजनु बिम्बफल, नयनकमलअभिराम॥
पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥
चौपाई
जय यदुनंदन जय जगवंदन।
जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे।
जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नट-नागर, नाग नथइया॥
कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो।
आओ दीनन कष्ट निवारो॥
वंशी मधुर अधर धरि टेरौ।
होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो।
आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे।
मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
राजित राजिव नयन विशाला।
मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥
कुंडल श्रवण, पीत पट आछे।
कटि किंकिणी काछनी काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे।
छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुंघराले।
आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पूतनहि तार्‌यो।
अका बका कागासुर मार्‌यो॥
मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला।
भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढ़्‌यो रिसाई।
मूसर धार वारि वर्षाई॥
लगत लगत व्रज चहन बहायो।
गोवर्धन नख धारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। 
मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥
कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें।
चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा।
सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
केतिक महा असुर संहार्‌यो।
कंसहि केस पकड़ि दै मार्‌यो॥
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई।
उग्रसेन कहं राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो।
मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी।
लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भीमहिं तृण चीर सहारा।
जरासिंधु राक्षस कहं मारा॥
असुर बकासुर आदिक मार्‌यो।
भक्तन के तब कष्ट निवार्‌यो॥
दीन सुदामा के दुख टार्‌यो।
तंदुल तीन मूंठ मुख डार्‌यो॥
प्रेम के साग विदुर घर मांगे।
दुर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखी प्रेम की महिमा भारी।
ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
भारत के पारथ रथ हांके।
लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाए।
भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥
मीरा थी ऐसी मतवाली।
विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा सांप पिटारी।
शालीग्राम बने बनवारी॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो।
उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करि तत्काला।
जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।
दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहि वसन बने नंदलाला।
बढ़े चीर भै अरि मुंह काला॥
अस अनाथ के नाथ कन्हइया।
डूबत भंवर बचावइ नइया॥
'सुन्दरदास' आस उर धारी।
दया दृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो।
क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै।
बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥
दोहा
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥
 
श्री बटुक भैरव चालीसा
दोहा
श्री गणपति गुरु गौरी पद प्रेम सहित धरि माथ।
चालीसा वंदन करो श्री शिव भैरवनाथ॥
श्री भैरव संकट हरण मंगल करण कृपाल।
श्याम वरण विकराल वपु लोचन लाल विशाल॥
चौपाई
जय जय श्री काली के लाला। 
जयति जयति काशी- कुतवाला॥
जयति बटुक- भैरव भय हारी। 
जयति काल- भैरव बलकारी॥
जयति नाथ- भैरव विख्याता। 
जयति सर्व- भैरव सुखदाता॥
भैरव रूप कियो शिव धारण। 
भव के भार उतारण कारण॥
भैरव रव सुनि हवै भय दूरी। 
सब विधि होय कामना पूरी॥
शेष महेश आदि गुण गायो। 
काशी- कोतवाल कहलायो॥
जटा जूट शिर चंद्र विराजत।
बाला मुकुट बिजायठ साजत॥
कटि करधनी घुंघरू बाजत। 
दर्शन करत सकल भय भाजत॥
जीवन दान दास को दीन्ह्यो। 
कीन्ह्यो कृपा नाथ तब चीन्ह्यो॥
वसि रसना बनि सारद- काली। 
दीन्ह्यो वर राख्यो मम लाली॥
धन्य धन्य भैरव भय भंजन। 
जय मनरंजन खल दल भंजन॥
कर त्रिशूल डमरू शुचि कोड़ा। 
कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोडा॥
जो भैरव निर्भय गुण गावत। 
अष्टसिद्धि नव निधि फल पावत॥
रूप विशाल कठिन दुख मोचन। 
क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन॥
अगणित भूत प्रेत संग डोलत।
बम बम बम शिव बम बम बोलत॥
रुद्रकाय काली के लाला। 
महा कालहू के हो काला॥
बटुक नाथ हो काल गंभीरा। 
श्‍वेत रक्त अरु श्याम शरीरा॥
करत नीनहूं रूप प्रकाशा। 
भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा॥
रत्‍न जड़ित कंचन सिंहासन। 
व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन॥
तुमहि जाइ काशिहिं जन ध्यावहिं। 
विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं॥
जय प्रभु संहारक सुनन्द जय। 
जय उन्नत हर उमा नन्द जय॥
भीम त्रिलोचन स्वान साथ जय। 
वैजनाथ श्री जगतनाथ जय॥
महा भीम भीषण शरीर जय। 
रुद्र त्रयम्बक धीर वीर जय॥
अश्‍वनाथ जय प्रेतनाथ जय। 
स्वानारुढ़ सयचंद्र नाथ जय॥
निमिष दिगंबर चक्रनाथ जय। 
गहत अनाथन नाथ हाथ जय॥
त्रेशलेश भूतेश चंद्र जय। 
क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय॥
श्री वामन नकुलेश चण्ड जय। 
कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय॥
रुद्र बटुक क्रोधेश कालधर। 
चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर॥
करि मद पान शम्भु गुणगावत। 
चौंसठ योगिन संग नचावत॥
करत कृपा जन पर बहु ढंगा। 
काशी कोतवाल अड़बंगा॥
देयं काल भैरव जब सोटा। 
नसै पाप मोटा से मोटा॥
जनकर निर्मल होय शरीरा।
मिटै सकल संकट भव पीरा॥
श्री भैरव भूतों के राजा। 
बाधा हरत करत शुभ काजा॥
ऐलादी के दुख निवारयो। 
सदा कृपाकरि काज सम्हारयो॥
सुन्दर दास सहित अनुरागा। 
श्री दुर्वासा निकट प्रयागा॥
श्री भैरव जी की जय लेख्यो। 
सकल कामना पूरण देख्यो॥
दोहा
जय जय जय भैरव बटुक स्वामी संकट टार।
कृपा दास पर कीजिए शंकर के अवतार॥
 
श्री विष्णु चालीसा
दोहा
विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय ।
कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥
चौपाई
नमो विष्णु भगवान खरारी, 
कष्ट नशावन अखिल बिहारी ।
प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी, 
त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥
सुन्दर रूप मनोहर सूरत, 
सरल स्वभाव मोहनी मूरत ।
तन पर पीताम्बर अति सोहत, 
बैजन्ती माला मन मोहत ॥
शंख चक्र कर गदा विराजे,
देखत दैत्य असुर दल भाजे ।
सत्य धर्म मद लोभ न गाजे,
काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥
सन्तभक्त सज्जन मनरंजन,
दनुज असुर दुष्टन दल गंजन ।
सुख उपजाय कष्ट सब भंजन,
दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥
पाप काट भव सिन्धु उतारण,
कष्ट नाशकर भक्त उबारण ।
करत अनेक रूप प्रभु धारण,
केवल आप भक्ति के कारण ॥
धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा,
तब तुम रूप राम का धारा ।
भार उतार असुर दल मारा,
रावण आदिक को संहारा ॥
आप वाराह रूप बनाया,
हिरण्याक्ष को मार गिराया ।
धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया,
चौदह रतनन को निकलाया ॥
अमिलख असुरन द्वन्द मचाया,
रूप मोहनी आप दिखाया ।
देवन को अमृत पान कराया,
असुरन को छवि से बहलाया ॥
कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया,
मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया ।
शंकर का तुम फन्द छुड़ाया,
भस्मासुर को रूप दिखाया ॥
वेदन को जब असुर डुबाया,
कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया ।
मोहित बनकर खलहि नचाया,
उसही कर से भस्म कराया ॥
असुर जलन्धर अति बलदाई,
शंकर से उन कीन्ह लड़ाई ।
हार पार शिव सकल बनाई,
कीन सती से छल खल जाई ॥
सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी,
बतलाई सब विपत कहानी ।
तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी,
वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥
देखत तीन दनुज शैतानी,
वृन्दा आय तुम्हें लपटानी ।
हो स्पर्श धर्म क्षति मानी,
हना असुर उर शिव शैतानी ॥
तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे,
हिरणाकुश आदिक खल मारे ।
गणिका और अजामिल तारे,
बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥
हरहु सकल संताप हमारे,
कृपा करहु हरि सिरजन हारे ।
देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे,
दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥
चाहता आपका सेवक दर्शन,
करहु दया अपनी मधुसूदन ।
जानूं नहीं योग्य जब पूजन,
होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥
शीलदया सन्तोष सुलक्षण,
विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण ।
करहुं आपका किस विधि पूजन,
कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥
करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण,
कौन भांति मैं करहु समर्पण ।
सुर मुनि करत सदा सेवकाई,
हर्षित रहत परम गति पाई ॥
दीन दुखिन पर सदा सहाई,
निज जन जान लेव अपनाई ।
पाप दोष संताप नशाओ,
भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥
सुत सम्पति दे सुख उपजाओ,
निज चरनन का दास बनाओ ।
निगम सदा ये विनय सुनावै,
पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥
 
श्री गोपाल चालीसा
दोहा
श्री राधापद कमल रज, सिर धरि यमुना कूल।
वरणो चालीसा सरस, सकल सुमंगल मूल।।
चौपाई
जय जय पूरण ब्रह्म बिहारी, दुष्ट दलन लीला अवतारी।
जो कोई तुम्हरी लीला गावै, बिन श्रम सकल पदारथ पावै।
श्री वसुदेव देवकी माता, प्रकट भये संग हलधर भ्राता।
मथुरा सों प्रभु गोकुल आये, नन्द भवन मे बजत बधाये।
जो विष देन पूतना आई, सो मुक्ति दै धाम पठाई।
तृणावर्त राक्षस संहारयौ, पग बढ़ाय सकटासुर मार्यौ।
खेल खेल में माटी खाई, मुख मे सब जग दियो दिखाई।
गोपिन घर घर माखन खायो, जसुमति बाल केलि सुख पायो।
ऊखल सों निज अंग बँधाई, यमलार्जुन जड़ योनि छुड़ाई।
बका असुर की चोंच विदारी, विकट अघासुर दियो सँहारी।
ब्रह्मा बालक वत्स चुराये, मोहन को मोहन हित आये।
बाल वत्स सब बने मुरारी, ब्रह्मा विनय करी तब भारी।
काली नाग नाथि भगवाना, दावानल को कीन्हों पाना।
सखन संग खेलत सुख पायो, श्रीदामा निज कन्ध चढ़ायो।
चीर हरन करि सीख सिखाई, नख पर गिरवर लियो उठाई।
दरश यज्ञ पत्निन को दीन्हों, राधा प्रेम सुधा सुख लीन्हों।
नन्दहिं वरुण लोक सों लाये, ग्वालन को निज लोक दिखाये।
शरद चन्द्र लखि वेणु बजाई, अति सुख दीन्हों रास रचाई।
अजगर सों पितु चरण छुड़ायो, शंखचूड़ को मूड़ गिरायो।
हने अरिष्टा सुर अरु केशी, व्योमासुर मार्यो छल वेषी।
व्याकुल ब्रज तजि मथुरा आये, मारि कंस यदुवंश बसाये।
मात पिता की बन्दि छुड़ाई, सान्दीपन गृह विघा पाई।
पुनि पठयौ ब्रज ऊधौ ज्ञानी, पे्रम देखि सुधि सकल भुलानी।
कीन्हीं कुबरी सुन्दर नारी, हरि लाये रुक्मिणि सुकुमारी।
भौमासुर हनि भक्त छुड़ाये, सुरन जीति सुरतरु महि लाये।
दन्तवक्र शिशुपाल संहारे, खग मृग नृग अरु बधिक उधारे।
दीन सुदामा धनपति कीन्हों, पाराि रथ सारथि यश लीन्हों।
गीता ज्ञान सिखावन हारे, अर्जुन मोह मिटावन हारे।
केला भक्त बिदुर घर पायो, युद्ध महाभारत रचवायो।
द्रुपद सुता को चीर बढ़ायो, गर्भ परीक्षित जरत बचायो।
कच्छ मच्छ वाराह अहीशा, बावन कल्की बुद्धि मुनीशा।
ह्वै नृसिंह प्रह्लाद उबार्यो, राम रुप धरि रावण मार्यो।
जय मधु कैटभ दैत्य हनैया, अम्बरीय प्रिय चक्र धरैया।
ब्याध अजामिल दीन्हें तारी, शबरी अरु गणिका सी नारी।
गरुड़ासन गज फन्द निकन्दन, देहु दरश धु्रव नयनानन्दन।
देहु शुद्ध सन्तन कर सग्ड़ा, बाढ़ै प्रेम भक्ति रस रग्ड़ा।
देहु दिव्य वृन्दावन बासा, छूटै मृग तृष्णा जग आशा।
तुम्हरो ध्यान धरत शिव नारद, शुक सनकादिक ब्रह्म विशारद।
जय जय राधारमण कृपाला, हरण सकल संकट भ्रम जाला।
बिनसैं बिघन रोग दुःख भारी, जो सुमरैं जगपति गिरधारी।
जो सत बार पढ़ै चालीसा, देहि सकल बाँछित फल शीशा।
छन्द
गोपाल चालीसा पढ़ै नित, नेम सों चित्त लावई।
सो दिव्य तन धरि अन्त महँ, गोलोक धाम सिधावई।।
दोहा
प्रणत पाल अशरण शरण, करुणा-सिन्धु ब्रजेश।
चालीसा के संग मोहि, अपनावहु प्राणेश।।
 
श्री ब्रह्मा चालीसा
दोहा
जय ब्रह्मा जय स्वयम्भू, चतुरानन सुखमूल।
करहु कृपा निज दास पै, रहहु सदा अनुकूल।
तुम सृजक ब्रह्माण्ड के, अज विधि घाता नाम।
विश्वविधाता कीजिये, जन पै कृपा ललाम।
चौपाई
जय जय कमलासान जगमूला, रहहू सदा जनपै अनुकूला।
रुप चतुर्भुज परम सुहावन, तुम्हें अहैं चतुर्दिक आनन।
रक्तवर्ण तव सुभग शरीरा, मस्तक जटाजुट गंभीरा।
ताके ऊपर मुकुट विराजै, दाढ़ी श्वेत महाछवि छाजै।
श्वेतवस्त्र धारे तुम सुन्दर, है यज्ञोपवीत अति मनहर।
कानन कुण्डल सुभग विराजहिं, गल मोतिन की माला राजहिं।
चारिहु वेद तुम्हीं प्रगटाये, दिव्य ज्ञान त्रिभुवनहिं सिखाये।
ब्रह्मलोक शुभ धाम तुम्हारा, अखिल भुवन महँ यश विस्तारा।
अर्द्धागिनि तव है सावित्री, अपर नाम हिये गायत्री।
सरस्वती तब सुता मनोहर, वीणा वादिनि सब विधि मुन्दर।
कमलासन पर रहे विराजे, तुम हरिभक्ति साज सब साजे।
क्षीर सिन्धु सोवत सुरभूपा, नाभि कमल भो प्रगट अनूपा।
तेहि पर तुम आसीन कृपाला, सदा करहु सन्तन प्रतिपाला।
एक बार की कथा प्रचारी, तुम कहँ मोह भयेउ मन भारी।
कमलासन लखि कीन्ह बिचारा, और न कोउ अहै संसारा।
तब तुम कमलनाल गहि लीन्हा, अन्त विलोकन कर प्रण कीन्हा।
कोटिक वर्ष गये यहि भांती, भ्रमत भ्रमत बीते दिन राती।
पै तुम ताकर अन्त न पाये, ह्वै निराश अतिशय दुःखियाये।
पुनि बिचार मन महँ यह कीन्हा, महापघ यह अति प्राचीन।
याको जन्म भयो को कारन, तबहीं मोहि करयो यह धारन।
अखिल भुवन महँ कहँ कोई नाहीं, सब कुछ अहै निहित मो माहीं।
यह निश्चय करि गरब बढ़ायो, निज कहँ ब्रह्म मानि सुखपाये।
गगन गिरा तब भई गंभीरा, ब्रह्मा वचन सुनहु धरि धीरा।
सकल सृष्टि कर स्वामी जोई, ब्रह्म अनादि अलख है सोई।
निज इच्छा इन सब निरमाये, ब्रह्मा विष्णु महेश बनाये।
सृष्टि लागि प्रगटे त्रयदेवा, सब जग इनकी करिहै सेवा।
महापघ जो तुम्हरो आसन, ता पै अहै विष्णु को शासन।
विष्णु नाभितें प्रगट्यो आई, तुम कहँ सत्य दीन्ह समुझाई।
भैतहू जाई विष्णु हितमानी, यह कहि बन्द भई नभवानी।
ताहि श्रवण कहि अचरज माना, पुनि चतुरानन कीन्ह पयाना।
कमल नाल धरि नीचे आवा, तहां विष्णु के दर्शन पावा।
शयन करत देखे सुरभूपा, श्यायमवर्ण तनु परम अनूपा।
सोहत चतुर्भुजा अतिसुन्दर, क्रीटमुकट राजत मस्तक पर।
गल बैजन्ती माल विराजै, कोटि सूर्य की शोभा लाजै।
शंख चक्र अरु गदा मनोहर, पघ नाग शय्या अति मनहर।
दिव्यरुप लखि कीन्ह प्रणामू, हर्षित भे श्रीपति सुख धामू।
बहु विधि विनय कीन्ह चतुरानन, तब लक्ष्मी पति कहेउ मुदित मन।
ब्रह्मा दूरि करहु अभिमाना, ब्रह्मारुप हम दोउ समाना।
तीजे श्री शिवशंकर आहीं, ब्रह्मरुप सब त्रिभुवन मांही।
तुम सों होई सृष्टि विस्तारा, हम पालन करिहैं संसारा।
शिव संहार करहिं सब केरा, हम तीनहुं कहँ काज घनेरा।
अगुणरुप श्री ब्रह्मा बखानहु, निराकार तिनकहँ तुम जानहु।
हम साकार रुप त्रयदेवा, करिहैं सदा ब्रह्म की सेवा।
यह सुनि ब्रह्मा परम सिहाये, परब्रह्म के यश अति गाये।
सो सब विदित वेद के नामा, मुक्ति रुप सो परम ललामा।
यहि विधि प्रभु भो जनम तुम्हारा, पुनि तुम प्रगट कीन्ह संसारा।
नाम पितामह सुन्दर पायेउ, जड़ चेतन सब कहँ निरमायेउ।
लीन्ह अनेक बार अवतारा, सुन्दर सुयश जगत विस्तारा।
देवदनुज सब तुम कहँ ध्यावहिं, मनवांछित तुम सन सब पावहिं।
जो कोउ ध्यान धरै नर नारी, ताकी आस पुजावहु सारी।
पुष्कर तीर्थ परम सुखदाई, तहँ तुम बसहु सदा सुरराई।
कुण्ड नहाइ करहि जो पूजन, ता कर दूर होई सब दूषण।
 
श्री सूर्य चालीसा
दोहा
कनक बदन कुंडल मकर, मुक्ता माला अंग।
पद्मासन स्थित ध्याइए, शंख चक्र के संग।।
चौपाई
जय सविता जय जयति दिवाकर, सहस्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर।
भानु, पतंग, मरीची, भास्कर, सविता, हंस, सुनूर, विभाकर।
विवस्वान, आदित्य, विकर्तन, मार्तण्ड, हरिरूप, विरोचन।
अम्बरमणि, खग, रवि कहलाते, वेद हिरण्यगर्भ कह गाते।
सहस्रांशु, प्रद्योतन, कहि कहि, मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि।
अरुण सदृश सारथी मनोहर, हांकत हय साता चढ़‍ि रथ पर।
मंडल की महिमा अति न्यारी, तेज रूप केरी बलिहारी।
उच्चैश्रवा सदृश हय जोते, देखि पुरन्दर लज्जित होते।
मित्र, मरीचि, भानु, अरुण, भास्कर, सविता,
सूर्य, अर्क, खग, कलिहर, पूषा, रवि,
आदित्य, नाम लै, हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै।
द्वादस नाम प्रेम सो गावैं, मस्तक बारह बार नवावै।
चार पदारथ सो जन पावै, दुख दारिद्र अघ पुंज नसावै।
नमस्कार को चमत्कार यह, विधि हरिहर कौ कृपासार यह।
सेवै भानु तुमहिं मन लाई, अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई।
बारह नाम उच्चारन करते, सहस जनम के पातक टरते।
उपाख्यान जो करते तवजन, रिपु सों जमलहते सोतेहि छन।
छन सुत जुत परिवार बढ़तु है, प्रबलमोह को फंद कटतु है।
अर्क शीश को रक्षा करते, रवि ललाट पर नित्य बिहरते।
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत, कर्ण देश पर दिनकर छाजत।
भानु नासिका वास करहु नित, भास्कर करत सदा मुख कौ हित।
ओठ रहैं पर्जन्य हमारे, रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे।
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा, तिग्मतेजसः कांधे लोभा।
पूषा बाहु मित्र पीठहिं पर, त्वष्टा-वरुण रहम सुउष्णकर।
युगल हाथ पर रक्षा कारन, भानुमान उरसर्मं सुउदरचन।
बसत नाभि आदित्य मनोहर, कटि मंह हंस, रहत मन मुदभर।
जंघा गोपति, सविता बासा, गुप्त दिवाकर करत हुलासा।
विवस्वान पद की रखवारी, बाहर बसते नित तम हारी।
सहस्रांशु, सर्वांग सम्हारै, रक्षा कवच विचित्र विचारे।
अस जोजजन अपने न माहीं, भय जग बीज करहुं तेहि नाहीं।
दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुं न व्यापै, जोजन याको मन मंह जापै।
अंधकार जग का जो हरता, नव प्रकाश से आनन्द भरता।
ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही, कोटि बार मैं प्रनवौं ताही।
मन्द सदृश सुतजग में जाके, धर्मराज सम अद्भुत बांके।
धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा, किया करत सुरमुनि नर सेवा।
भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों, दूर हटत सो भव के भ्रम सों।
परम धन्य सो नर तनधारी, हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी।
अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन, मध वेदांगनाम रवि उदय।
भानु उदय वैसाख गिनावै, ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै।
यम भादों आश्विन हिमरेता, कातिक होत दिवाकर नेता।
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं, 
पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं।
दोहा
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहिं जे नर नित्य।
सुख सम्पत्ति लहै विविध, होंहि सदा कृतकृत्य।।
 
श्री नवग्रह चालीसा
दोहा
श्री गणपति ग़ुरुपद कमल, प्रेम सहित सिरनाय ,
नवग्रह चालीसा कहत, शारद होत सहाय जय,
जय रवि शशि सोम बुध, जय गुरु भृगु शनि राज,
जयति राहू अरु केतु ग्रह, करहु अनुग्रह आज !!
चौपाई
श्री सूर्य स्तुति
प्रथमही रवि कहं नावों माथा, करहु कृपा जन जानि अनाथा,
हे आदित्य दिवाकर भानु, मै मति मन्द महा अज्ञानु,
अब निज जन कहं हरहु क्लेशा, दिनकर द्वादश रूप दिनेशा,
नमो भास्कर सूर्य प्रभाकर, अर्क मित्र अघ मोघ क्षमाकर !!
श्री चंद्र स्तुति
शशि मयंक रजनी पति स्वामी, चंद्र कलानिधि नमो नमामि,
राकापति हिमांशु राकेशा, प्रणवत जन तन हरहु कलेशा,
सोम इंदु विधु शान्ति सुधाकर, शीत रश्मि औषधि निशाकर ,
तुम्ही शोभित सुंदर भाल महेशा, शरण शरण जन हरहु कलेशा !!
श्री मंगल स्तुति
जय जय मंगल सुखा दाता, लोहित भौमादिक विख्याता ,
अंगारक कुंज रुज ऋणहारि, करहु दया यही विनय हमारी ,
हे महिसुत छितिसुत सुखराशी, लोहितांगा जय जन अघनाशी ,
अगम अमंगल अब हर लीजै, सकल मनोरथ पूरण कीजै !!
श्री बुध स्तुति
जय शशि नंदन बुध महाराजा, करहु सकल जन कहॅ शुभ काजा,
दीजै बुद्धिबल सुमति सुजाना, कठिन कष्ट हरी करी कल्याणा ,
हे तारासुत रोहिणी नंदन, चंद्र सुवन दु:ख द्वंद निकन्दन,
पूजहु आस दास कहूँ स्वामी, प्रणत पाल प्रभु नमो नमामि !!
श्री बृहस्पति स्तुति
जयति जयति जय श्री गुरु देवा, करहु सदा तुम्हरी प्रभु सेवा,
देवाचार्य तुम देव गुरु ज्ञानी, इन्द्र पुरोहित विद्या दानी,
वाचस्पति बागीश उदारा, जीव बृहस्पति नाम तुम्हारा,
विद्या सिन्धु अंगीरा नामा, करहु सकल विधि पूरण कामा !
श्री शुक्र स्तुति
शुक्र देव पद तल जल जाता, दास निरंतर ध्यान लगाता,
हे उशना भार्गव भृगु नंदन, दैत्य पुरोहित दुष्ट निकन्दन,
भृगुकुल भूषण दूषण हारी, हरहु नैष्ट ग्रह करहु सुखारी,
तुही द्विजवर जोशी सिरताजा, नर शरीर के तुम्हीं राजा !!
श्री शनि स्तुति
जय श्री शनि देव रवि नंदन, जय कृष्णो सौरी जगवन्दन,
पिंगल मन्द रौद्र यम नामा, वप्र आदि कोणस्थ ललामा,
वक्र दृष्टी पिप्पल तन साजा, क्षण महॅ करत रंक क्षण राजा,
ललत स्वर्ण पद करत निहाला, हरहु विपत्ति छाया के लाला!
श्री राहू स्तुति
जय जय राहू गगन प्रविसइया, तुम्ही चंद्र आदित्य ग्रसईया,
रवि शशि अरि सर्वभानु धारा, शिखी आदि बहु नाम तुम्हारा,
सैहिंकेय तुम निशाचर राजा, अर्धकार्य जग राखहु लाजा,
यदि ग्रह समय पाय कहिं आवहु, सदा शान्ति और सुखा उपजवाहू !!
श्री केतु स्तुति
जय श्री केतु कठिन दुखहारी, करहु सृजन हित मंगलकारी,
ध्वजयुक्त रुण्द रूप विकराला, घोर रौद्रतन अधमन काला ,
शिखी तारिका ग्रह बलवाना, महा प्रताप न तेज ठिकाना,
वाहन मीन महा शुभकारी, दीजै शान्ति दया उर धारी !!
नवग्रह शान्ति फल
तीरथराज प्रयाग सुपासा, बसै राम के सुंदर दासा,
ककरा ग्राम्हीं पुरे-तिवारी, दुर्वासाश्रम जन दुख हारी,
नव-ग्रह शान्ति लिख्यो सुख हेतु, जन तन कष्ट उतारण सेतु,
जो नित पाठ करै चित लावे, सब सुख भोगी परम पद पावे!
दोहा
धन्य नवग्रह देव प्रभु, महिमा अगम अपार,
चित्त नव मंगल मोद गृह, जगत जनन सुखद्वारा ,
यह चालीसा नावोग्रह, विरचित सुन्दरदास,
पढ़त प्रेमयुक्त बढ़त सुख, सर्वानन्द हुलास !!
॥ इति श्री नवग्रह चालीसा ॥
 
श्री विश्वकर्मा चालीसा
दोहा
श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊं, चरणकमल धरिध्यान।
श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान।।
चौपाई
जय श्री विश्वकर्म भगवाना। जय विश्वेश्वर कृपा निधाना।।
शिल्पाचार्य परम उपकारी। भुवना-पुत्र नाम छविकारी।।
अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर। शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर।।
अद्‍भुत सकल सृष्टि के कर्ता। सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्ता।।
अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं। कोई विश्व मंह जानत नाही।।
विश्व सृष्टि-कर्ता विश्वेशा। अद्‍भुत वरण विराज सुवेशा।।
एकानन पंचानन राजे। द्विभुज चतुर्भुज दशभुज साजे।।
चक्र सुदर्शन धारण कीन्हे। वारि कमण्डल वर कर लीन्हे।।
शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा। सोहत सूत्र माप अनुरूपा।।
धनुष बाण अरु त्रिशूल सोहे। नौवें हाथ कमल मन मोहे ।।
दसवां हस्त बरद जग हेतु। अति भव सिंधु मांहि वर सेतु।।
सूरज तेज हरण तुम कियऊ। अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ।।
चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका। दण्ड पालकी शस्त्र अनेका।।
विष्णुहिं चक्र शूल शंकरहीं। अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं।।
इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा। तुम सबकी पूरण की आशा।।
भांति-भांति के अस्त्र रचाए। सतपथ को प्रभु सदा बचाए।।
अमृत घट के तुम निर्माता। साधु संत भक्तन सुर त्राता।।
लौह काष्ट ताम्र पाषाणा। स्वर्ण शिल्प के परम सजाना।।
विद्युत अग्नि पवन भू वारी। इनसे अद्भुत काज सवारी।।
खान-पान हित भाजन नाना। भवन विभिषत विविध विधाना।।
विविध व्सत हित यत्रं अपारा। विरचेहु तुम समस्त संसारा।।
द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका। विविध महा औषधि सविवेका।।
शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला। वरुण कुबेर अग्नि यमकाला।।
तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ। करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ।।
भे आतुर प्रभु लखि सुर-शोका। कियउ काज सब भये अशोका।।
अद्भुत रचे यान मनहारी। जल-थल-गगन मांहि-समचारी।।
शिव अरु विश्वकर्म प्रभु मांही। विज्ञान कह अंतर नाही।।
बरनै कौन स्वरूप तुम्हारा। सकल सृष्टि है तव विस्तारा।।
रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा। तुम बिन हरै कौन भव हारी।।
मंगल-मूल भगत भय हारी। शोक रहित त्रैलोक विहारी।।
चारो युग परताप तुम्हारा। अहै प्रसिद्ध विश्व उजियारा।।
ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता। वर विज्ञान वेद के ज्ञाता।।
मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा। सबकी नित करतें हैं रक्षा।।
प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई। विपदा हरै जगत मंह जोई।।
जै जै जै भौवन विश्वकर्मा। करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा।।
इक सौ आठ जाप कर जोई। छीजै विपत्ति महासुख होई।।
पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा। होय सिद्ध साक्षी गौरीशा।।
विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे। हो प्रसन्न हम बालक तेरे।।
मैं हूं सदा उमापति चेरा। सदा करो प्रभु मन मंह डेरा।।
दोहा
करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवरूप।
श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय बसहु सूर भूप।।
 
श्री रविदास चालीसा
दोहा
बन्दौ वीणा पाणि को, देहु आय मोहिं ज्ञान।
पाय बुद्धि रविदास को, करौं चरित्र बखान।
मातु की महिमा अमित है, लिखि न सकत है दास।
ताते आयों शरण में, पुरवहुं जन की आस।
चौपाई
जै होवै रविदास तुम्हारी, कृपा करहु हरिजन हितकारी।
राहू भक्त तुम्हारे ताता, कर्मा नाम तुम्हारी माता।
काशी ढिंग माडुर स्थाना, वर्ण अछुत करत गुजराना।
द्वादश वर्ष उम्र जब आई, तुम्हरे मन हरि भक्ति समाई।
रामानन्द के शिष्य कहाये, पाय ज्ञान निज नाम बढ़ाये।
शास्त्र तर्क काशी में कीन्हों, ज्ञानिन को उपदेश है दीन्हों।
गंग मातु के भक्त अपारा, कौड़ी दीन्ह उनहिं उपहारा।
पंडित जन ताको लै जाई, गंग मातु को दीन्ह चढ़ाई।
हाथ पसारि लीन्ह चैगानी, भक्त की महिमा अमित बखानी।
चकित भये पंडित काशी के, देखि चरित भव भयनाशी के।
रत्न जटित कंगन तब दीन्हां, रविदास अधिकारी कीन्हां।
पंडित दीजौ भक्त को मेरे, आदि जन्म के जो हैं चेरे।
पहुंचे पंडित ढिग रविदासा, दै कंगन पुरइ अभिलाषा।
तब रविदास कही यह बाता, दूसर कंगन लावहु ताता।
पंडित ज तब कसम उठाई, दूसर दीन्ह न गंगा माई।
तब रविदास ने वचन उचारे, पंडित जन सब भये सुखारे।
जो सर्वदा रहै मन चंगा, तौ घर बसति मातु है गंगा।
हाथ कठौती में तब डारा, दूसर कंगन एक निकारा।
चित संकोचित पंडित कीन्हें, अपने अपने मारग लीन्हें।
तब से प्रचलित एक प्रसंगा, मन चंगा तो कठौती में गंगा।
एक बार फिरि परयो झमेला, मिलि पंडितजन कीन्हो खेला।
सालिगराम गंग उतरावै, सोई प्रबल भक्त कहलावै।
सब जन गये गंग के तीरा, मूरति तैरावन बिच नीरा।
डूब गई सबकी मझधारा, सबके मन भयो दुख अपारा।
पत्थर की मूर्ति रही उतराई, सुर नर मिलि जयकार मचाई।
रहयो नाम रविदास तुम्हारा, मच्यो नगर महं हाहाकारा।
चीरि देह तुम दुग्ध बहायो, जन्म जनेउ आप दिखाओ।
देखि चकित भये सब नर नारी, विद्वानन सुधि बिसरी सारी।
ज्ञान तर्क कबिरा संग कीन्हों, चकित उनहुं का तुक करि दीन्हों।
गुरु गोरखहिं दीन्ह उपदेशा, उन मान्यो तकि संत विशेषा।
सदना पीर तर्क बहु कीन्हां, तुम ताको उपदेश है दीन्हां।
मन मह हारयो सदन कसाई, जो दिल्ली में खबरि सुनाई।
मुस्लिम धर्म की सुनि कुबड़ाई, लोधि सिकन्दर गयो गुस्साई।
अपने गृह तब तुमहिं बुलावा, मुस्लिम होन हेतु समुझावा।
मानी नहिं तुम उसकी बानी, बंदीगृह काटी है रानी।
कृष्ण दरश पाये रविदासा, सफल भई तुम्हरी सब आशा।
ताले टूटि खुल्यो है कारा, नाम सिकन्दर के तुम मारा।
काशी पुर तुम कहं पहुंचाई, दै प्रभुता अरुमान बड़ाई।
मीरा योगावति गुरु कीन्हों, जिनको क्षत्रिय वंश प्रवीनो।
तिनको दै उपदेश अपारा, कीन्हों भव से तुम निस्तारा।
दोहा
ऐसे ही रविदास ने, कीन्हें चरित अपार।
कोई कवि गावै कितै, तहूं न पावै पार।
नियम सहित हरिजन अगर, ध्यान धरै चालीसा।
ताकी रक्षा करेंगे, जगतपति जगदीशा।
 
श्री गोरखनाथ चालीसा
दोहा
गणपति  गिरजा  पुत्र  को सुमिरु  बारम्बार  |
हाथ  जोड़  बिनती  करू शारद  नाम  आधार ||
चौपाई
जय जय जय गोरख अविनाशी| कृपा करो गुरुदेव प्रकाशी||
जय जय जय गोरख गुण ज्ञानी | इच्छा रूप योगी वरदानी ||
अलख निरंजन तुम्हरो नामा| सदा करो भक्त्तन हित कामा||
नाम तुम्हारो जो कोई गावे| जन्म जन्म  के दुःख मिट जावे ||
जो कोई गोरख नाम सुनावे| भूत पिसाच निकट नहीं आवे||
ज्ञान तुम्हारा योग से पावे  | रूप तुम्हारा लख्या न जावे  ||
निराकार तुम हो निर्वाणी  | महिमा तुम्हारी वेद न जानी  ||
घट - घट के तुम अंतर्यामी  | सिद्ध  चोरासी करे परनामी  ||
भस्म अंग गल नांद विराजे | जटा शीश अति सुन्दर साजे  ||
तुम बिन देव और नहीं दूजा  | देव मुनिजन करते पूजा  ||
चिदानंद संतन  हितकारी  | मंगल करण अमंगल हारी  ||
पूरण ब्रह्मा सकल घट वासी  | गोरख नाथ सकल प्रकाशी ||
गोरख गोरख जो कोई धियावे  | ब्रह्म  रूप के दर्शन पावे ||
शंकर रूप धर डमरू बाजे  | कानन कुंडल सुन्दर साजे  ||
नित्यानंद है नाम तुम्हारा  | असुर मार भक्तन रखवारा  ||
अति विशाल है रूप तुम्हारा| सुर नर मुनिजन पावे न पारा ||
दीनबंधु दीनन हितकारी  | हरो पाप हम शरण तुम्हारी ||
योग युक्ति में हो प्रकाशा | सदा करो संतान तन बासा ||
प्रात: काल ले नाम तुम्हारा | सिद्धि बढे अरु योग प्रचारा ||
हठ हठ हठ गोरछ हठीले  | मर मर वैरी के कीले ||
चल चल चल गोरख विकराला | दुश्मन मार करो बेहाला ||
जयजयजय गोरख अविनाशी| अपने जन की हरो चोरासी||
अचल अगम है गोरख योगी  | सिद्धि दियो हरो रस भोगी  ||
काटो मार्ग यम को तुम आई | तुम बिन मेरा कोन सहाई ||
अजर अमर है तुम्हारी देहा| सनकादिकसब जोरहि नेहा ||
कोटिन रवि सम तेज तुम्हारा| है प्रसिद्ध जगत उजियारा|| 
योगी लखे तुम्हारी माया  | पार ब्रह्म से ध्यान लगाया  ||
ध्यान तुम्हारा जो कोई लावे| अष्ट सिद्धि नव निधि पा जावे||
शिव गोरख है नाम तुम्हारा  | पापी दुष्ट अधम को तारा  ||
अगम अगोचर निर्भय नाथा | सदा रहो संतन के साथा ||
शंकर रूप अवतार तुम्हारा  | गोपीचंद, भरथरी को तारा||
सुन लीजो प्रभु अरज हमारी| कृपासिन्धु योगी ब्रहमचारी||
पूर्ण आस दास की कीजे | सेवक जान ज्ञान को दीजे||
पतित पवन अधम अधारा | तिनके हेतु तुम लेत अवतारा||
अखल निरंजन नाम तुम्हारा| अगम पंथ जिन योग प्रचारा||
जयजयजय गोरख भगवाना| सदा करो भक्त्तन कल्याना||
जय जय जय गोरख अविनाशी  | सेवा करे सिद्ध चोरासी  ||
जो यह पढ़े गोरख चालीसा  | होए सिद्ध साक्षी जगदीशा ||
हाथ जोड़कर ध्यान लगावे  | और श्रद्धा से भेंट चढ़ावे  ||
बारह पाठ पढ़े नित जोई  | मनोकामना पूर्ण होई  ||  
 
श्री जाहरवीर चालीसा
दोहा
सुवन केहरी जेवर, सुत महाबली रनधीर।
बन्दौं सुत रानी बाछला, विपत निवारण वीर॥
जय जय जय चौहान, वन्स गूगा वीर अनूप।
अनंगपाल को जीतकर, आप बने सुर भूप॥
चौपाई
जय जय जय जाहर रणधीरा। पर दुख भंजन बागड़ वीरा॥
गुरु गोरख का है वरदानी। जाहरवीर जोधा लासानी॥
गौरवरण मुख महा विशाला। माथे मुकट घुंघराले बाला॥
कांधे धनुष गले तुलसी माला। कमर कृपान रक्षा को डाला॥
जन्में गूगावीर जग जाना। ईसवी सन हजार दरमियाना॥
बल सागर गुण निधि कुमारा। दुखी जनों का बना सहारा॥
बागड़ पति बाछला नन्दन। जेवर सुत हरि भक्त निकन्दन॥
जेवर राव का पुत्र कहाये। माता पिता के नाम बढ़ाये॥
पूरन हुई कामना सारी। जिसने विनती करी तुम्हारी॥
सन्त उबारे असुर संहारे। भक्त जनों के काज संवारे॥
गूगावीर की अजब कहानी। जिसको ब्याही श्रीयल रानी॥
बाछल रानी जेवर राना। महादुःखी थे बिन सन्ताना॥
भंगिन ने जब बोली मारी। जीवन हो गया उनको भारी॥
सूखा बाग पड़ा नौलक्खा। देख-देख जग का मन दुक्खा॥
कुछ दिन पीछे साधू आये। चेला चेली संग में लाये॥
जेवर राव ने कुआ बनवाया। उद्घाटन जब करना चाहा॥
खारी नीर कुए से निकला। राजा रानी का मन पिघला॥
रानी तब ज्योतिषी बुलवाया। कौन पाप मैं पुत्र न पाया॥
कोई उपाय हमको बतलाओ। उन कहा गोरखगुरु मनाओ॥
गुरु गोरख जो खुश हो जाई। सन्तान पाना मुश्किल नाई॥
बाछल रानी गोरख गुन गावे। नेम धर्म को न बिसरावे॥
करे तपस्या दिन और राती। एक वक्त खाय रूखी चपाती॥
कार्तिक माघ में करे स्नाना। व्रत इकादसी नहीं भुलाना॥
पूरनमासी व्रत नहीं छोड़े। दान पुण्य से मुख नहीं मोड़े॥
चेलों के संग गोरख आये। नौलखे में तम्बू तनवाये॥
मीठा नीर कुए का कीना। सूखा बाग हरा कर दीना॥
मेवा फल सब साधु खाए। अपने गुरु के गुन को गाये॥
औघड़ भिक्षा मांगने आए। बाछल रानी ने दुख सुनाये॥
औघड़ जानलियो मनमाहीं। तपबल से कुछ मुश्किल नाहीं॥
रानी होवे मनसा पूरी। गुरु शरण है बहुत जरूरी॥
बारह बरस जपा गुरु नामा। तब गोरख ने मन में जाना॥
पुत्र देन की हामी भर ली। पूरनमासी निश्चय कर ली॥
काछल कपटिन गजब गुजारा। धोखा गुरु संग किया करारा॥
बाछल बनकर पुत्र पाया। बहन का दरद जरा नहीं आया॥
औघड़ गुरु को भेद बताया। तब बाछल ने गूगल पाया॥
कर परसादी दिया गूगल दाना। अब तुम पुत्र जनो मरदाना॥
लीली घोड़ी और पण्डतानी। लूना दासी ने भी जानी॥
रानी गूगल बाट के खाई। सब बांझों को मिली दवाई॥
नरसिंह पंडित लीला घोड़ा। भज्जु कुतवाल जना रणधीरा॥
रूप विकट धर सब ही डरावे। जाहरवीर के मन को भावे॥
भादों कृष्ण जब नौमी आई। जेवरराव के बजी बधाई॥
विवाह हुआ गूगा भये राना। संगलदीप में बने मेहमाना॥
रानी श्रीयल संग परे फेरे। जाहर राज बागड़ का करे॥
अरजन सरजन काछल जने। गूगा वीर से रहे वे तने॥
दिल्ली गए लड़ने के काजा। अनंग पाल चढ़े महाराजा॥
उसने घेरी बागड़ सारी। जाहरवीर न हिम्मत हारी॥
अरजन सरजन जान से मारे। अनंगपाल ने शस्त्र डारे॥
चरण पकड़कर पिण्ड छुड़ाया। सिंह भवन माड़ी बनवाया॥
उसी में गूगावीर समाये। गोरख टीला धूनी रमाये॥
पुण्यवान सेवक वहाँ आये। तन मन धन से सेवा लाए॥
मनसा पूरी उनकी होई। गूगावीर को सुमरे जोई॥
चालीस दिन पढ़े जाहर चालीसा। सारे कष्ट हरे जगदीसा॥
दूध पूत उन्हें दे विधाता। कृपा करे गुरु गोरखनाथ॥
 
श्री प्रेतराज चालीसा
दोहा
गणपति की कर वन्दना, गुरु चरणन चित लाए !
प्रेतराज जी का लिखूँ, चालीसा हरषाए !!
जय जय भूतादिक प्रबल, हरण सकल दुख भार !
वीर शिरोमणि जयति, जय प्रेतराज सरकार !!
चौपाई
जय जय प्रेतराज जगपावन ! महाप्रबल दुख ताप नसावन !!
विकट्वीर करुणा के सागर! भक्त कष्ट हर सब गुण आगर!!
रतन जडित सिंहासन सोहे ! देखत सुर नर मुनि मन मोहे !!
जगमग सिर पर मुकुट सुहावन! काननकुण्डल अति मनभावन!!
धनुष किरपाण बाण अरु भाला ! वीर वेष अति भ्रकुटि कराला !!
गजारुढ संग सेना भारी ! बाजत ढोल म्रदंग जुझारी !!
छ्त्र चँवर पंखा सिर डोलें ! भक्त व्रन्द मिल जय जय बोलें !!
भक्त शिरोमणि वीर प्रचण्डा! दुष्टदलन शोभित भुजदण्डा!!
चलत सैन काँपत भु-तलह ! दर्शन करत मिटत कलिमलह !!
घाटा मेंहदीपुर में आकर ! प्रगटे प्रेतराज गुण सागर !!
लाल ध्वजा उड रही गगन में ! नाचत भक्त मगन हो मन में !!
भक्त कामना पूरन स्वामी ! बजरंगी के सेवक नामी !!
इच्छा पूरन करने वाले ! दुख संकट सब हरने वाले !!
जो जिस इच्छा से हैं आते ! मनवांछित फल सब वे हैं पाते !!
रोगी सेवा में जो हैं आते ! शीघ्र स्वस्थ होकर घर हैं जाते !!
भूत पिशाच जिन वैताला ! भागे देखत रुप विकराला !!
भोतिक शारीरिक सब पीडा ! मिटा शीघ्र करते हैं क्रीडा !!
कठिन काज जग में हैं जेते ! रटत नाम पूरा सब होते !!
तन मन से सेवा जो करते ! उनके कष्ट प्रभु सब हरते !!
हे करुणामय स्वामी मेरे ! पडा हुआ हूँ दर पे तेरे !!
कोई तेरे सिवा ना मेरा ! मुझे एक आश्रय प्रभु तेरा !!
लज्जा मेरी हाथ तिहारे ! पडा हुआ हूँ चरण सहारे !!
या विधि अरज करे तन-मनसे! छूटत रोग-शोक सब तनसे!!
मेंहदीपुर अवतार लिया है! भक्तों का दुख दूर किया है!!
रोगी पागल सन्तति हीना ! भूत व्याधि सुत अरु धन छीना !!
जो जो तेरे द्वारे आते ! मनवांछित फल पा घर जाते !!
महिमा भूतल पर छाई है ! भक्तों ने लीला गाई है !!
महन्त गणेश पुरी तपधारी ! पूजा करते तन-मन वारी !!
हाथों में ले मुदगर घोटे ! दूत खडे रहते हैं मोटे !!
लाल देह सिन्दूर बदन में ! काँपत थर-थर भूत भवन में !!
जो कोई प्रेतराज चालीसा! पाठ करे नित एक अरु हमेशा!!
प्रातः काल स्नान करावै ! तेल और सिन्दूर लगावै !!
चन्दन इत्र फुलेल चढावै ! पुष्पन की माला पहनावै !!
ले कपूर आरती उतारें ! करें प्रार्थना जयति उचारें !!
उन के सभी कष्ट कट जाते ! हर्षित हो अपने घर जाते !!
इच्छा पूरन करते जन की ! होती सफल कामना मन की !!
भक्त कष्ट हरअरि कुलघातक! ध्यान करत छूटत सब पातक!!
जय जय जय प्रेताधिराज जय! जयति भुपति संकट हर जय!!
जो नर पढत प्रेत चालीसा ! रहत ना कबहुँ दुख लवलेशा !!
कह 'सुखराम' ध्यानधर मन में ! प्रेतराज पावन चरनन में !!
दोहा
दुष्ट दलन जग अघ हरन ! समन सकल भव शूल !!
जयति भक्त रक्षक सबल ! प्रेतराज सुख मूल !!
विमल वेश अंजनि सुवन ! प्रेतराज बल धाम !!
बसहु निरन्तर मम ह्र्दय ! कहत दास सुखराम !!
 
श्री बालाजी चालीसा
दोहा
श्री गुरू चरण चितलाय के धरें ध्यान हनुमान |
बालाजी चालीसा लिखें दास स्नेही कल्याण ||
विश्व विदित वर दानी संकट हरण हनुमान |
मेंहदीपुर प्रकट भये बालाजी भगवान ||
चौपाई
जय हनुमान बालाजी देव , प्रकट भए यहाँ तीनों देवा |
प्रेतराज भैरव बलवाना, कोतवाल कप्तान हनुमाना |
मेहदीपुर अवतार लिया है, भक्तो का उध्दार किया है |
बालरूप प्रकटे है यहां पर, संकट वाले आते है जहाँ पर |
डाकनि, शाकनि अरु जिन्दनी, मशान चुडैल भूत भूतनी |
जाके भय से सब भाग जाते, स्याने भोपे यहाँ घबराते |
चौकी बंधन सब कट जाते, दूत मिले आनंद मनाते |
सच्चा है दरबार तिहारा, शरण पडे सुख पावे भारा |
रूप तेज बल अतुलित धामा, सन्मुख जिनके सिय रामा |
कनक मुकुट मणि तेज प्रकाशा, सवकी होवत पूर्ण आशा |
महंत गणेशपुरी गुणीले, भए सुसेवक राम रंगीले |
अद्भुत कला दिखाई कैसी, कलयुग ज्योति जलाई जैसी |
ऊँची ध्वज पताका नभ में, स्वर्ण कलश है उन्नत जग मे |
धर्म सत्य का दंका बाजे, सियाराम जय शंकर राजे |
आना फिराया मुगदर घोटा, भूत जिंद पर पडते सोटा |
राम लक्ष्मण सिय ह्रदय कल्याणा, बाल रूप प्रकटे हनुमाना |
जय हनुमंत हठीले देवा, पुरी परिवार करत है सेवा |
चूरमा, मिश्री, मेवा, पुरी परिवार करत है सेवा |
लड्डू, चूरमा, मिश्री, मेवा, अर्जी दरखास्त लगाऊँ देवा |
दया करे सब विधि बालाजी, लंकट हरण प्रकटे बालाजी |
जय बाबा की जन-जन उचारे, कोटिक जन आए हेरे द्वारे |
बाल समय रवि भक्षहि लीन्हा, तिमिर मय जग कीन्ही तीन्हा|
देवन विनती की अति भारी, छाँड दियो रवि कष्ट निहारी |
लाँघि उदधि सिया सुधि लाए, लक्ष हित संजीवन लाए |
रामानुज प्राण दिवाकर, शंकर सुवन माँ अंजनी चाकर |
केसरी नंदन दुख भव भंजन, रामानंद सदा सुख सुख संदन |
सिया राम के प्राण प्यारे, जय बाबा की भक्तउचारे |
संकट दुख भंजन भगवाना, हया दरहु हे कृप्या निधाना |
सुमर बाल रूप कल्याणा, करे मनोरथ पूर्ण कामा |
अष्ट सिध्दि नव निधि दातारी, भक्त जन आवे बहु भारी |
मेवा अरु मिष्ठान प्रवीना, भेट चढावें धनि अरु दीना |
नृत्य करे नित न्यारे-न्यारे, रिध्दि-सिध्दियाँ जाके द्वारे |
अर्जी का आदेश मिलते ही, भैरव भूत पकडते तब ही |
कोतवाल कप्तान कृपाणी, प्रेतराज संकट कल्याणी |
चौकी बंधन कटते भाई, जो जन करते है सेवकाई |
रामदास बाल भगवंता, मेहदीपुर प्रकटे हनुमंता |
जो जन बालाजी मे आते है, जन्म-जन्म के पाप नशाते |
जल पावन लेकर घर आते, निर्मल हो आनंद मनाते |
क्रूर कठिन संकट भगजावे, सत्य धर्म पथ राह दिखावे |
जो सत पाठ करे चालीसा, तापर प्रसन्न होय बागीसा |
कल्याण स्नेही, स्नेह से गावे, सुख समृध्दि रिध्दि सिध्दि पावे |
दोहा
मंद बुध्दि मम जानके क्षमा करो गुणखान |
संकट मोचन क्षमहु मम दास स्नेही कल्याण ||
 
श्री गिरिराज चालीसा
दोहा
बन्दहुँ वीणा वादिनी, धरि गणपति को ध्यान।
महाशक्ति राधा सहित, कृष्ण करौ कल्याण॥
सुमिरन करि सब देवगण, गुरु पितु बारम्बार।
बरनौ श्रीगिरिराज यश, निज मति के अनुसार॥
चौपाई
जय हो जय बंदित गिरिराजा। ब्रज मण्डल के श्री महाराजा॥
विष्णु रूप तुम हो अवतारी। सुन्दरता पै जग बलिहारी॥
स्वर्ण शिखर अति शोभा पामें। सुर मुनि गण दरशन कूं आमें॥
शांत कन्दरा स्वर्ग समाना। जहाँ तपस्वी धरते ध्याना॥
द्रोणगिरि के तुम युवराजा। भक्तन के साधौ हौ काजा॥
मुनि पुलस्त्य जी के मन भाये। जोर विनय कर तुम कूँ लाय॥
मुनिवर संघ जब ब्रज में आये। लखि ब्रजभूमि यहाँ ठहराये॥
विष्णु धाम गौलोक सुहावन। यमुना गोवर्धन वृन्दावन॥
देख देव मन में ललचाये। बास करन बहु रूप बनाये॥
कोउ बानर कोउ मृग के रूपा। कोउ वृक्ष कोउ लता स्वरूपा॥
आनन्द लें गोलोक धाम के। परम उपासक रूप नाम के॥
द्वापर अंत भये अवतारी। कृष्णचन्द्र आनन्द मुरारी॥
महिमा तुम्हरी कृष्ण बखानी। पूजा करिबे की मन ठानी॥
ब्रजवासी सब के लिये बुलाई। गोवर्द्धन पूजा करवाई॥
पूजन कूँ व्यञ्जन बनवाये। ब्रजवासी घर घर ते लाये॥
ग्वाल बाल मिलि पूजा कीनी। सहस भुजा तुमने कर लीनी॥
स्वयं प्रकट हो कृष्ण पूजा में। माँग माँग के भोजन पामें॥
लखि नर नारि मन हरषामें। जै जै जै गिरिवर गुण गामें॥
देवराज मन में रिसियाए। नष्ट करन ब्रज मेघ बुलाए॥
छाँया कर ब्रज लियौ बचाई। एकउ बूँद न नीचे आई॥
सात दिवस भई बरसा भारी। थके मेघ भारी जल धारी॥
कृष्णचन्द्र ने नख पै धारे। नमो नमो ब्रज के रखवारे॥
करि अभिमान थके सुरसाई। क्षमा माँग पुनि अस्तुति गाई॥
त्राहि माम् मैं शरण तिहारी। क्षमा करो प्रभु चूक हमारी॥
बार बार बिनती अति कीनी। सात कोस परिकम्मा दीनी॥
संग सुरभि ऐरावत लाये। हाथ जोड़ कर भेंट गहाये॥
अभय दान पा इन्द्र सिहाये। करि प्रणाम निज लोक सिधाये॥
जो यह कथा सुनैं चित लावें। अन्त समय सुरपति पद पावें॥
गोवर्द्धन है नाम तिहारौ। करते भक्तन कौ निस्तारौ॥
जो नर तुम्हरे दर्शन पावें। तिनके दुःख दूर ह्वै जावें॥
कुण्डन में जो करें आचमन। धन्य धन्य वह मानव जीवन॥
मानसी गंगा में जो न्हावें। सीधे स्वर्ग लोक कूँ जावें॥
दूध चढ़ा जो भोग लगावें। आधि व्याधि तेहि पास न आवें॥
जल फल तुलसी पत्र चढ़ावें। मन वांछित फल निश्चय पावें॥
जो नर देत दूध की धारा। भरौ रहे ताकौ भण्डारा॥
करें जागरण जो नर कोई। दुख दरिद्र भय ताहि न होई॥
‘श्याम’ शिलामय निजजन त्राता। भक्तिमुक्ति सरबस के दाता॥
पुत्र हीन जो तुम कूँ ध्यावें। ताकूँ पुत्र प्राप्ति ह्वै जावें॥
दंडौती परिकम्मा करहीं। ते सहजहि भवसागर तरहीं॥
कलि में तुम सम देव न दूजा। सुर नर मुनि सब करते पूजा॥
दोहा
जो यह चालीसा पढ़ै, सुनै शुद्ध चित्त लाय।
सत्य सत्य यह सत्य है, गिरिवर करै सहाय॥
क्षमा करहुँ अपराध मम, त्राहि माम् गिरिराज।
श्याम बिहारी शरण में, गोवर्द्धन महाराज॥
 
श्री महावीर चालीसा
दोहा
सिद्ध समूह नमों सदा, अरु सुमरूं अरहन्त।
निर आकुल निर्वांच्छ हो, गए लोक के अंत ॥
मंगलमय मंगल करन, वर्धमान महावीर।
तुम चिंतत चिंता मिटे, हरो सकल भव पीर ॥
चौपाई
जय महावीर दया के सागर, जय श्री सन्मति ज्ञान उजागर।
शांत छवि मूरत अति प्यारी, वेष दिगम्बर के तुम धारी।
कोटि भानु से अति छबि छाजे, देखत तिमिर पाप सब भाजे।
महाबली अरि कर्म विदारे, जोधा मोह सुभट से मारे।
काम क्रोध तजि छोड़ी माया, क्षण में मान कषाय भगाया।
रागी नहीं नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी।
प्रभु तुम नाम जगत में साँचा, सुमरत भागत भूत पिशाचा।
राक्षस यक्ष डाकिनी भागे, तुम चिंतत भय कोई न लागे।
महा शूल को जो तन धारे, होवे रोग असाध्य निवारे।
व्याल कराल होय फणधारी, विष को उगल क्रोध कर भारी।
महाकाल सम करै डसन्ता, निर्विष करो आप भगवन्ता।
महामत्त गज मद को झारै, भगै तुरत जब तुझे पुकारै।
फार डाढ़ सिंहादिक आवै, ताको हे प्रभु तुही भगावै।
होकर प्रबल अग्नि जो जारै, तुम प्रताप शीतलता धारै।
शस्त्र धार अरि युद्ध लड़न्ता, तुम प्रसाद हो विजय तुरन्ता।
पवन प्रचण्ड चलै झकझोरा, प्रभु तुम हरौ होय भय चोरा।
झार खण्ड गिरि अटवी मांहीं, तुम बिनशरण तहां कोउ नांहीं।
वज्रपात करि घन गरजावै, मूसलधार होय तड़कावै।
होय अपुत्र दरिद्र संताना, सुमिरत होत कुबेर समाना।
बंदीगृह में बँधी जंजीरा, कठ सुई अनि में सकल शरीरा।
राजदण्ड करि शूल धरावै, ताहि सिंहासन तुही बिठावै।
न्यायाधीश राजदरबारी, विजय करे होय कृपा तुम्हारी।
जहर हलाहल दुष्ट पियन्ता, अमृत सम प्रभु करो तुरन्ता।
चढ़े जहर, जीवादि डसन्ता, निर्विष क्षण में आप करन्ता।
एक सहस वसु तुमरे नामा, जन्म लियो कुण्डलपुर धामा।
सिद्धारथ नृप सुत कहलाए, त्रिशला मात उदर प्रगटाए।
तुम जनमत भयो लोक अशोका, अनहद शब्दभयो तिहुँलोका।
इन्द्र ने नेत्र सहस्र करि देखा, गिरी सुमेर कियो अभिषेखा।
कामादिक तृष्णा संसारी, तज तुम भए बाल ब्रह्मचारी।
अथिर जान जग अनित बिसारी, बालपने प्रभु दीक्षा धारी।
शांत भाव धर कर्म विनाशे, तुरतहि केवल ज्ञान प्रकाशे।
जड़-चेतन त्रय जग के सारे, हस्त रेखवत्‌ सम तू निहारे।
लोक-अलोक द्रव्य षट जाना, द्वादशांग का रहस्य बखाना।
पशु यज्ञों का मिटा कलेशा, दया धर्म देकर उपदेशा।
अनेकांत अपरिग्रह द्वारा, सर्वप्राणि समभाव प्रचारा।
पंचम काल विषै जिनराई, चांदनपुर प्रभुता प्रगटाई।
क्षण में तोपनि बाढि-हटाई, भक्तन के तुम सदा सहाई।
मूरख नर नहिं अक्षर ज्ञाता, सुमरत पंडित होय विख्याता।
सोरठा
करे पाठ चालीस दिन नित चालीसहिं बार।
खेवै धूप सुगन्ध पढ़, श्री महावीर अगार ॥
जनम दरिद्री होय अरु जिसके नहिं सन्तान।
नाम वंश जग में चले होय कुबेर समान ॥
 
श्री परशुराम चालीसा
दोहा
श्री गुरु चरण सरोज छवि, निज मन मन्दिर धारि । 
सुमरि गजानन शारदा, गहि आशिष त्रिपुरारि ॥
बुद्धिहीन जन जानिये, अवगुणों का भण्डार । 
बरण परशुराम सुयश, निज मति के अनुसार । 
चौपाई
जय प्रभु परशुराम सुख सागर, जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर । । 
भृगुकुल मुकुट विकट रणधीरा, क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा । । 
जमदग्नी सुत रेणुका जाया, तेज प्रताप सकल जग छाया । 
मास बैसाख सित पच्छ उदारा, तृतीया पुनर्वसु मनुहारा ।
प्रहर प्रथम निशातीत न घामा, तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा।।
तब ऋषि कुटीर रूदन शिशु कीन्हा, रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा।।
 निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े, मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े।
 तेज - ज्ञान मिल नर तनु धारा, जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा।।
धरा राम शिशु पावन नामा, नाम जपत जग लहे विश्रामा। 
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर, कांधे मुंज जनेऊ मनहर।।
मंजु मेखला कटि मृगछाला, रूद्र माला बर वक्ष विशाला।।
पीत बसन सुन्दर तनु सोहें, कंध तुणीर धनुष मन मोहें।
वेद - पुराण - श्रुति - स्मृति ज्ञाता, क्रोध रूप तुम जग विख्याता।
दायें हाथ श्रीपरशु उठावा, वेद - संहिता बायें सुहावा। 
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा, शास्त्र - शस्त्र दोउ पर अधिकारा। 
भुवन चारिदस अरु नवखंडा, चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा।
एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा।
एक बार गणपति के संगा, जूझे भृगुकुल कमल पतंगा।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा, एक दंत गणपति भयो नामा।। 
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला, सहस्त्रबाहु दुर्जन विकराला।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं, रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं। 
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई, भयो पराजित जगत हंसाई।
तन खलु हृदय भई रिस गाढ़ी, रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी। 
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना, तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा। 
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता, मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता।
पितु - बध मातु - रूदन सुनि भारा, भा अति क्रोध मन शोक अपारा।।
कर गहि तीक्षण परशु कराला, दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला। 
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा, पितु - बंध प्रतिशोध सुत लीन्हा।। 
इक्कीस बार भू क्षत्रिय विहीनी, छीन धरा विप्रन्ह कहँ दीनी।
जुग त्रेता कर चरित सुहाई, शिव - धनु भंग कीन्ह रघुराई। 
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना, तव समूल नाश ताहि ठाना। 
कर जोरि तब राम रघुराई, विनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई। 
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता, भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता।
शास्त्र विद्या देह सुयश कमावा, गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा। 
चारों युग तव महिमा गाई, सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई। 
दे कश्यप सों संपदा भाई, तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई। 
अब लौं लीन समाधि नाथा, सकल लोक नावइ नित माथा। 
चारों व एक सम जाना, समदर्शी प्रभु तुम भगवाना।
लहहिं चारि फल शरण तुम्हारी, देव दनुज नर भूप भिखारी। 
जो यह पढ़ श्री परशु चालीसा, तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा। 
पृर्णेन्दु निसि वासर स्वामी, बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी।
दोहा
परशुराम को चारू चरित, मेटत सकल अज्ञान। 
शरण पड़े को देत प्रभु, सदा सुयश सम्मान।
 
श्री खाटू श्याम चालीसा
दोहा
श्री गुरु चरणन ध्यान धर, सुमीर सच्चिदानंद।
श्याम चालीसा बणत है, रच चौपाई छंद।
चौपाई
श्याम-श्याम भजि बारंबारा। सहज ही हो भवसागर पारा।
इन सम देव न दूजा कोई। दिन दयालु न दाता होई।।
भीम सुपुत्र अहिलावाती जाया। कही भीम का पौत्र कहलाया।
यह सब कथा कही कल्पांतर। तनिक न मानो इसमें अंतर।।
बर्बरीक विष्णु अवतारा। भक्तन हेतु मनुज तन धारा।
बासुदेव देवकी प्यारे। जसुमति मैया नंद दुलारे।।
मधुसूदन गोपाल मुरारी। वृजकिशोर गोवर्धन धारी।
सियाराम श्री हरि गोबिंदा। दिनपाल श्री बाल मुकुंदा।।
दामोदर रण छोड़ बिहारी। नाथ द्वारिकाधीश खरारी।
राधाबल्लभ रुक्मणि कंता। गोपी बल्लभ कंस हनंता।।
मनमोहन चित चोर कहाए। माखन चोरि-चारि कर खाए।
मुरलीधर यदुपति घनश्यामा। कृष्ण पतित पावन अभिरामा।।
मायापति लक्ष्मीपति ईशा। पुरुषोत्तम केशव जगदीशा।
विश्वपति जय भुवन पसारा। दीनबंधु भक्तन रखवारा।।
प्रभु का भेद न कोई पाया। शेष महेश थके मुनिराया।
नारद शारद ऋषि योगिंदरर। श्याम-श्याम सब रटत निरंतर।।
कवि कोदी करी कनन गिनंता। नाम अपार अथाह अनंता।
हर सृष्टी हर सुग में भाई। ये अवतार भक्त सुखदाई।।
ह्रदय माहि करि देखु विचारा। श्याम भजे तो हो निस्तारा।
कौर पढ़ावत गणिका तारी। भीलनी की भक्ति बलिहारी।।
सती अहिल्या गौतम नारी। भई श्रापवश शिला दुलारी।
श्याम चरण रज चित लाई। पहुंची पति लोक में जाही।।
अजामिल अरु सदन कसाई। नाम प्रताप परम गति पाई।
जाके श्याम नाम अधारा। सुख लहहि दुःख दूर हो सारा।।
श्याम सलोवन है अति सुंदर। मोर मुकुट सिर तन पीतांबर।
गले बैजंती माल सुहाई। छवि अनूप भक्तन मान भाई।।
श्याम-श्याम सुमिरहु दिन-राती। श्याम दुपहरि कर परभाती।
श्याम सारथी जिस रथ के। रोड़े दूर होए उस पथ के।।
श्याम भक्त न कही पर हारा। भीर परि तब श्याम पुकारा।
रसना श्याम नाम रस पी ले। जी ले श्याम नाम के ही ले।।
संसारी सुख भोग मिलेगा। अंत श्याम सुख योग मिलेगा।
श्याम प्रभु हैं तन के काले। मन के गोरे भोले-भाले।
श्याम संत भक्तन हितकारी। रोग-दोष अध नाशे भारी।
प्रेम सहित जब नाम पुकारा। भक्त लगत श्याम को प्यारा।।
खाटू में हैं मथुरावासी। पारब्रह्म पूर्ण अविनाशी।
सुधा तान भरि मुरली बजाई। चहु दिशि जहां सुनी पाई।।
वृद्ध-बाल जेते नारि नर। मुग्ध भये सुनि बंशी स्वर।
हड़बड़ कर सब पहुंचे जाई। खाटू में जहां श्याम कन्हाई।।
जिसने श्याम स्वरूप निहारा। भव भय से पाया छुटकारा।
दोहा
श्याम सलोने संवारे, बर्बरीक तनुधार।
इच्छा पूर्ण भक्त की, करो न लाओ बार।। 
 
श्री खाटू श्याम चालीसा
दोहा
श्री गुरु पदरज शीशधर प्रथम सुमिरू गणेश ॥
ध्यान शारदा ह्रदयधर भजुँ भवानी महेश ॥
चरण शरण विप्लव पड़े हनुमत हरे कलेश ।
श्याम चालीसा भजत हुँ जयति खाटू नरेश ॥
चौपाई
वन्दहुँ श्याम प्रभु दुःख भंजन, विपत विमोचन कष्ट निकंदन।
सांवल रूप मदन छविहारी, केशर तिलक भाल दुतिकारी।
मौर मुकुट केसरिया बागा, गल वैजयंति चित अनुरागा।
नील अश्व मौरछडी प्यारी, करतल त्रय बाण दुःख हारी।
सूर्यवर्च वैष्णव अवतारे,  सुर मुनि नर जन जयति पुकारे।
पिता घटोत्कच मोर्वी माता, पाण्डव वंशदीप सुखदाता।
बर्बर केश स्वरूप अनूपा, बर्बरीक अतुलित बल भूपा।
कृष्ण तुम्हे सुह्रदय पुकारे, नारद मुनि मुदित हो निहारे।
मौर्वे पूछत कर अभिवन्दन, जीवन लक्ष्य कहो यदुनन्दन।
गुप्त क्षेत्र देवी अराधना, दुष्ट दमन कर साधु साधना।
बर्बरीक बाल ब्रह्मचारी, कृष्ण वचन हर्ष शिरोधारी।
तप कर सिद्ध देवियाँ कीन्हा, प्रबल तेज अथाह बल लीन्हा।
यज्ञ करे विजय विप्र सुजाना, रक्षा बर्बरीक करे प्राना।
नव कोटि दैत्य पलाशि मारे, नागलोक वासुकि भय हारे।
सिद्ध हुआ चँडी अनुष्ठाना, बर्बरीक बलनिधि जग जाना।
वीर मोर्वेय निजबल परखन, चले महाभारत रण देखन।
माँगत वचन माँ मोर्वि अम्बा, पराजित प्रति पाद अवलम्बा।
आगे मिले माधव मुरारे, पूछे वीर क्युँ समर पधारे।
रण देखन अभिलाषा भारी, हारे का सदैव हितकारी।
तीर एक तीहुँ लोक हिलाय, बल परख श्री कृष्ण सँकुचाये।
यदुपति ने माया से जाना, पार अपार वीर को पाना।
धर्म युद्ध की देत दुहाई, माँगत शीश दान यदुराई।
मनसा होगी पूर्ण तिहारी, रण देखोगे कहे मुरारी।
शीश दान बर्बरीक दीन्हा, अमृत बर्षा सुरग मुनि कीन्हा।
देवी शीश अमृत से सींचत, केशव धरे शिखर जहँ पर्वत।
जब तक नभ मण्डल मे तारे, सुर मुनि जन पूजेंगे सारे।
दिव्य शीश मुद मंगल मूला, भक्तन हेतु सदा अनुकूला।
रण विजयी पाण्डव गर्वाये, बर्बरीक तब न्याय सुनाये।
सर काटे था चक्र सुदर्शन, रणचण्डी करती लहू भक्षन।
न्याय सुनत हर्षित जन सारे, जग में गूँजे जय जयकारे।
श्याम नाम घनश्याम दीन्हा, अजर अमर अविनाशी कीन्हा।
जन हित प्रकटे खाटू धामा, लख दाता दानी प्रभु श्यामा।
खाटू धाम मौक्ष का द्वारा, श्याम कुण्ड बहे अमृत धारा।
शुदी द्वादशी फाल्गुण मेला, खाटू धाम सजे अलबेला।
एकादशी व्रत ज्योत द्वादशी, सबल काय परलोक सुधरशी।
खीर चूरमा भोग लगत हैं, दुःख दरिद्र कलेश कटत हैं।
श्याम बहादुर सांवल ध्याये, आलु सिँह ह्रदय श्याम बसाये।
मोहन मनोज विप्लव भाँखे, श्याम धणी म्हारी पत राखे।
नित प्रति जो चालीसा गावे, सकल साध सुख वैभव पावे।
श्याम नाम सम सुख जग नाहीं, भव भय बन्ध कटत पल माहीं।
दोहा
त्रिबाण दे त्रिदोष मुक्ति दर्श दे आत्म ज्ञान।
चालीसा दे प्रभु भुक्ति सुमिरण दे कल्यान।
खाटू नगरी धन्य हैं श्याम नाम जयगान।
अगम अगोचर श्याम हैं विरदहिं स्कन्द पुरान।
 
श्री रामदेव चालीसा
दोहा
जय जय जय प्रभु रामदे, नमो नमो हरबार।
लाज रखो तुम नन्द की, हरो पाप का भार।
दीन बन्धु किरपा करो, मोर हरो संताप।
स्वामी तीनो लोक के, हरो क्लेश, अरू पाप।
चौपाई
जय जय रामदेव जयकारी। विपद हरो तुम आन हमारी।।
तुम हो सुख सम्पति के दाता। भक्त जनो के भाग्य विधाता।।
बाल रूप अजमल के धारा। बन कर पुत्र सभी दुख टारा।।
दुखियों के तुम हो रखवारे। लागत आप उन्हीं को प्यारे।।
आपहि रामदेव प्रभु स्वामी। घट घट के तुम अन्तरयामी।।
तुम हो भक्तों के भयहारी। मेरी भी सुध लो अवतारी।।
जग में नाम तुम्हारा भारी। भजते घर घर सब नर नारी।।
दुःख भंजन है नाम तुम्हारा। जानत आज सकल संसारा।।
सुन्दर धाम रूणिचा स्वामी। तुम हो जग के अन्तरयामी।।
कलियुग में प्रभु आप पधारे। अंश एक पर नाम है न्यारे।।
तुम हो भक्त जनों के रक्षक। पापी दुष्ट जनों के भक्षक।।
सोहे हाथ आपके भाला। गल में सोहे सुन्दर माला।।
आप सुशोभित अश्व सवारी। करो कृपा मुझ पर अवतारी।।
नाम तुम्हारा ज्ञान प्रकाशे। पाप अविधा सब दुख नाशे।।
तुम भक्तों के भक्त तुम्हारे। नित्य बसो प्रभु हिये हमारे।।
लीला अपरम्पार तुम्हारी। सुख दाता भय भंजन हारी।।
निर्बुद्धी भी बुद्धी पावे। रोगी रोग बिना हो जावे।।
पुत्र हीन सुसन्तति पावे। सुयश ज्ञान करि मोद मनावे।।
दुर्जन दुष्ट निकट नही आवे। भूत पिशाच सभी डर जावे।।
जो काई पुत्रहीन नर ध्यावे। निश्चय ही नर वो सुत पावे।।
तुम ने डुबत नाव उबारी। नमक किया मिसरी को सारी।।
पीरों को परचा तुम दिना। नींर सरोवर खारा किना।।
तुमने पत्र दिया दलजी को।ज्ञान दिया तुमने हरजी को।।
सुगना का दुख तुम हर लीना। पुत्र मरा सरजीवन किना।।
जो कोई तमको सुमरन करते। उनके हित पग आगे धरते।।
जो कोई टेर लगाता तेरी। करते आप तनिक ना देरी।।
विविध रूप धर भैरव मारा। जांभा को परचा दे डारा।।
जो कोई शरण आपकी आवे। मन इच्छा पुरण हो जावे।।
नयनहीन के तुम रखवारे। काढ़ी पुगंल के दुख टारे।।
नित्य पढ़े चालीसा कोई। सुख सम्पति वाके घर होई।।
जो कोई भक्ति भाव से ध्याते। मन वाछिंत फल वो नर पाते।।
मैं भी सेवक हुं प्रभु तेरा। काटो जन्म मरण का फेरा।।
जय जय हो प्रभु लीला तेरी । पार करो तुम नैया मेरी।।
करता नन्द विनय विनय प्रभु तेरी। करहु नाथ तुम मम उर डेरी
दोहा
भक्त समझ किरपा करी नाथ पधारे दौड़।
विनती है प्रभु आपसे नन्द करे कर जोड़।
यह चालीसा नित्य उठ पाठ करे जो कोय।
सब वाछिंत फल पाये वो सुख सम्पति घर होय।
 
श्री पितर चालीसा
दोहा
हे पितरेश्वर आपको दे दियो आशीर्वाद।
चरणाशीश नवा दियो रखदो सिर पर हाथ।
सबसे पहले गणपत पाछे घर का देव मनावा जी।
हे पितरेश्वर दया राखियो, करियो मन की चाया जी।।
चौपाई
पितरेश्वर करो मार्ग उजागर, चरण रज की मुक्ति सागर।
परम उपकार पित्तरेश्वर कीन्हा, मनुष्य योणि में जन्म दीन्हा।
मातृ-पितृ देव मन जो भावे, सोई अमित जीवन फल पावे।
जै-जै-जै पित्तर जी साईं, पितृ ऋण बिन मुक्ति नाहिं।
चारों ओर प्रताप तुम्हारा, संकट में तेरा ही सहारा।
नारायण आधार सृष्टि का, पित्तरजी अंश उसी दृष्टि का।
प्रथम पूजन प्रभु आज्ञा सुनाते, भाग्य द्वार आप ही खुलवाते।
झुंझनू में दरबार है साजे, सब देवों संग आप विराजे।
प्रसन्न होय मनवांछित फल दीन्हा, कुपित होय बुद्धि हर लीन्हा।
पित्तर महिमा सबसे न्यारी, जिसका गुणगावे नर नारी।
तीन मण्ड में आप बिराजे, बसु रुद्र आदित्य में साजे।
नाथ सकल संपदा तुम्हारी, मैं सेवक समेत सुत नारी।
छप्पन भोग नहीं हैं भाते, शुद्ध जल से ही तृप्त हो जाते।
तुम्हारे भजन परम हितकारी, छोटे बड़े सभी अधिकारी।
भानु उदय संग आप पुजावै, पांच अँजुलि जल रिझावे।
ध्वज पताका मण्ड पे है साजे, अखण्ड ज्योति में आप विराजे।
सदियों पुरानी ज्योति तुम्हारी, धन्य हुई जन्म भूमि हमारी।
शहीद हमारे यहाँ पुजाते, मातृ भक्ति संदेश सुनाते।
जगत पित्तरो सिद्धान्त हमारा, धर्म जाति का नहीं है नारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब पूजे पित्तर भाई।
हिन्दू वंश वृक्ष है हमारा, जान से ज्यादा हमको प्यारा।
गंगा ये मरुप्रदेश की, पितृ तर्पण अनिवार्य परिवेश की।
बन्धु छोड़ ना इनके चरणाँ, इन्हीं की कृपा से मिले प्रभु शरणा।
चौदस को जागरण करवाते, अमावस को हम धोक लगाते।
जात जडूला सभी मनाते, नान्दीमुख श्राद्ध सभी करवाते।
धन्य जन्म भूमि का वो फूल है, जिसे पितृ मण्डल की मिली धूल है।
श्री पित्तर जी भक्त हितकारी, सुन लीजे प्रभु अरज हमारी।
निशिदिन ध्यान धरे जो कोई, ता सम भक्त और नहीं कोई।
तुम अनाथ के नाथ सहाई, दीनन के हो तुम सदा सहाई।
चारिक वेद प्रभु के साखी, तुम भक्तन की लज्जा राखी।
नाम तुम्हारो लेत जो कोई, ता सम धन्य और नहीं कोई।
जो तुम्हारे नित पाँव पलोटत, नवों सिद्धि चरणा में लोटत।
सिद्धि तुम्हारी सब मंगलकारी, जो तुम पे जावे बलिहारी।
जो तुम्हारे चरणा चित्त लावे, ताकी मुक्ति अवसी हो जावे।
सत्य भजन तुम्हारो जो गावे, सो निश्चय चारों फल पावे।
तुमहिं देव कुलदेव हमारे, तुम्हीं गुरुदेव प्राण से प्यारे।
सत्य आस मन में जो होई, मनवांछित फल पावें सोई।
तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई, शेष सहस्र मुख सके न गाई।
मैं अतिदीन मलीन दुखारी, करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी।
अब पित्तर जी दया दीन पर कीजै, अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै।
दोहा
पित्तरों को स्थान दो, तीरथ और स्वयं ग्राम।
श्रद्धा सुमन चढ़ें वहां, पूरण हो सब काम।
झुंझनू धाम विराजे हैं, पित्तर हमारे महान।
दर्शन से जीवन सफल हो, पूजे सकल जहान।।
जीवन सफल जो चाहिए, चले झुंझनू धाम।
पित्तर चरण की धूल ले, हो जीवन सफल महान।।
 
श्री बाबा गंगाराम चालीसा
दोहा
अलख निरंजन आप हैं, निरगुण सगुण हमेश। 
नाना विधि अवतार धर, हरते जगत कलेश।। 
बाबा गंगारामजी, हुए विष्णु अवतार। 
चमत्कार लख आपका, गूंज उठी जयकार।। 
चौपाई
गंगाराम देव हितकारी, वैश्य वंश प्रकटे अवतारी।
पूर्वजन्म फल अमित रहेऊ, धन्य - धन्य पितु मातु भयेउ। 
उत्तम कुल उत्तम सतसंगा, पावन नाम राम अरू गंगा। 
बाबा नाम परम हितकारी, सत सत वर्ष सुमंगलकारी।
बीतहिं जन्म देह सुध नाहीं, तपत तपत पुनि भयेऊ गुसाई।
जो जन बाबा में चित लावा, तेहिं परताप अमर पद पावा। 
नगर झुंझनू धाम तिहारो, शरणागत के संकट टारो।
धरम हेतु सब सुख बिसराये, दीन हीन लखि हृदय लगाये। 
एहि विधि चालीस वर्ष बिताये, अन्त देह तजि देव कहाये।
देवलोक भई कंचन काया, तब जनहित संदेश पठाया। 
निज कुल जन को स्वप्न दिखावा, भावी करम जतन बतलावा। 
आपन सुत को दर्शन दीन्हों, धरम हेतु सब कारज कीन्हों।
नभ वाणी जब हुई निशा में, प्रकट भई छवि पूर्व दिशा में।
ब्रह्मा विष्णु शिव सहित गणेशा, जिमि जनहित प्रकटेउ सब ईशा।
चमत्कार एहि भांति दिखाया, अन्तरध्यान भई सब माया। 
सत्य वचन सुनि करहिं विचारा, मन महँ गंगाराम पुकारा।
जो जन करई मनौती मन में, बाबा पीर हरहि पल छन में। 
ज्यों निज रूप दिखावहिं सांचा, त्यों त्यों भक्तवृन्द तेहि जांचा।
उच्च मनोरथ शुचि आचारी, राम नाम के अटल पुजारी।
जो नित गंगाराम पुकारे, बाबा दुःख से ताहिं उबारे। 
बाबा में जिन्ह चित्त लगावा, ते नर लोक सकल सुख पावा।  
परहित बसहिं जाहिं मन मांही, बाबा बसहिं ताहिं तन मांही। 
धरहिं ध्यान रावरी मन में, सुखसंतोष लहै न मन में। 
धर्म वृक्ष जेही तन मन सींचा, पार ब्रह्म तेहि निज में खींचा।
गंगाराम नाम जो गावे, लहि बैकुंठ परम पद पावे।
बाबा पीर हरहिं सब भांति, जो सुमरे निश्छल दिन राती।
दीन बन्धु दीनन हितकारी, हरौ पाप हम शरण तिहारी। 
पंचदेव तुम पूर्ण प्रकाशा, सदा करो संतन मॅह बासा।
तारण तरण गंग का पानी, गंगाराम उभय सुनिशानी। 
कृपासिंधु तुम हो सुखसागर, सफल मनोरथ करहु कृपाकर।
झुंझनू नगर बड़ा बड़भागी, जहँ जन्में बाबा अनुरागी। 
पूरन ब्रह्म सकल घटवासी, गंगाराम अमर अविनाशी। 
ब्रह्म रूप देव अति भोला, कानन कुण्डल मुकुट अमोला। 
नित्यानन्द तेज सुख रासी, हरहु निशातन करहु प्रकासी।
गंगा दशहरा लागहिं मेला, नगर झुंझनू मॅह शुभ बेला।
जो नर कीर्तन करहिं तुम्हारा, छवि निरखि मन हरष अपारा। 
प्रात : काल ले नाम तुम्हारा, चौरासी का हो निस्तारा। 
पंचदेव मन्दिर विख्याता, दरशन हित भगतन का तांता। 
जय श्री गंगाराम नाम की, भवतारण तरि परम धाम की। 
‘महावीर' धर ध्यान पुनीता, विरचेउ गंगाराम सुगीता।
दोहा
सुने सुनावे प्रेम से, कीर्तन भजन सुनाम। 
मन इच्छा सब कामना, पुरई गंगाराम।। 
 
श्री साईं चालीसा
पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥
कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान॥
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥
कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥
जैसे-जैसे अमर उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ॥
दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥
लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे॥
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥
दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश ॥
‘अल्ला भला करेगा तेरा’ पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥
अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति॥
जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्‍बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥
बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥
साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥
‘काशीराम’ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥
स्तब्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥
घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥
लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥
बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥
उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥
उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥
इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥
शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी॥
जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी॥
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥
सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥
ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥
साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥
तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥
तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥
जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥
इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥
एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति॥
अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥
जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥
दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥
मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥
पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥
तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥
पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥
सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥
वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल॥
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में।
गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में॥
ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर॥
नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥
सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥
ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥
जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥