प्रतिदिन चालीसा का पाठ करने से हमारा अध्यात्मिक बल बढ़ता है। अध्यात्मिक बल से ही है हम जीवन की हर परेशानी से लड़ सकते हैं। अध्यात्मिक बल के सहारे ही हम शारीरिक रोगों पर भी विजय पा सकते हैं। चालीसा का पाठ आपको हर तरह के भय और तनाव से मुक्ति दिलाता है।
नित्य चालीसा पढ़ने से पवित्रता की भावना का विकास होता है हमारा मनोबल बढ़ता है। उल्लेखनीय है कि जनता कर्फ्यू के दौरान घंटी या ताली बजाना या लॉकडाउन के दौरान दीप जलाना, रोशनी करना यह सभी व्यक्ति के निराश के अंधेरे से निकालकर मनोबल को बढ़ाने वाले ही उपाय थे। मनोबल ऊंचा रहेगा तो सभी संकटों से निजात मिलेगी।
प्रतिदिन चालीसा का पाठ करने से अकारण भय व तनाव मिटता है, हर तरह का रोग मिटता है, हर तरह का संकट मिटता है, बंधन मुक्ति का उपाय है, नकारात्मक प्रभाव दूर होते हैं, सकारात्मक ऊर्जा व्यक्ति को दीर्घजीवी बनाती है, ग्रहों के दुश्प्रभाव दूर होते हैं, घर का कलह मिटता है, बुराइयों से दूर करती है चालीसा, नित्य चालीसा बढ़ने से आपमें आध्यात्मिक बल, आत्मिक बल और मनोबल बढ़ता है। इसे पवित्रता की भावना महसूस होती है। शरीर में हल्कापन लगता है और व्यक्ति खुद को निरोगी महसूस करता है। इससे भय, तनाव और असुरक्षा की भावना हट जाती है। जीवन में यही सब रोग और शोक से मुक्त होने के लिए जरूरी है।
श्री दुर्गा चालीसा |
नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥ |
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥ |
तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ |
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ |
रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥ |
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥ |
क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥ |
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ |
केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥ |
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥ |
शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥ महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥ |
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ परी गाढ़ संतन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥ |
अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥ ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥ |
प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥ |
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥ |
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥ |
शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥ |
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ आशा तृष्णा निपट सतावें। रिपू मुरख मौही डरपावे॥ |
शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला। |
जब लगि जिऊं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥ दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥ |
देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥ |
श्री लक्ष्मी चालीसा |
दोहा |
मातु लक्ष्मी करि कृपा करो हृदय में वास। मनोकामना सिद्ध कर पुरवहु मेरी आस॥ सिंधु सुता विष्णुप्रिये नत शिर बारंबार। ऋद्धि सिद्धि मंगलप्रदे नत शिर बारंबार॥ टेक॥ |
सोरठा |
यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करूं। सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥ |
चौपाई |
सिन्धु सुता मैं सुमिरौं तोही। ज्ञान बुद्धि विद्या दो मोहि॥ तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरबहु आस हमारी॥ |
जै जै जगत जननि जगदम्बा। सबके तुमही हो स्वलम्बा॥ तुम ही हो घट घट के वासी। विनती यही हमारी खासी॥ |
जग जननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥ विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी। |
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥ कृपा दृष्टि चितवो मम ओरी। जगत जननि विनती सुन मोरी॥ |
ज्ञान बुद्धि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥ क्षीर सिंधु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिंधु में पायो॥ |
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभुहिं बनि दासी॥ जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रूप बदल तहं सेवा कीन्हा॥ |
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥ तब तुम प्रकट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥ |
अपनायो तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥ तुम सब प्रबल शक्ति नहिं आनी। कहं तक महिमा कहौं बखानी॥ |
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन- इच्छित वांछित फल पाई॥ तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मन लाई॥ |
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करे मन लाई॥ ताको कोई कष्ट न होई। मन इच्छित फल पावै फल सोई॥ |
त्राहि- त्राहि जय दुःख निवारिणी। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणि॥ जो यह चालीसा पढ़े और पढ़ावे। इसे ध्यान लगाकर सुने सुनावै॥ |
ताको कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै। पुत्र हीन और सम्पत्ति हीना। अन्धा बधिर कोढ़ी अति दीना॥ |
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥ पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥ |
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥ बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥ |
प्रतिदिन पाठ करै मन माहीं। उन सम कोई जग में नाहिं॥ बहु विधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥ |
करि विश्वास करैं व्रत नेमा। होय सिद्ध उपजै उर प्रेमा॥ जय जय जय लक्ष्मी महारानी। सब में व्यापित जो गुण खानी॥ |
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयाल कहूं नाहीं॥ मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजे॥ |
भूल चूक करी क्षमा हमारी। दर्शन दीजै दशा निहारी॥ बिन दरशन व्याकुल अधिकारी। तुमहिं अक्षत दुःख सहते भारी॥ |
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्धि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥ रूप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥ |
कहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्धि मोहिं नहिं अधिकाई॥ रामदास अब कहाई पुकारी। करो दूर तुम विपति हमारी॥ |
दोहा |
त्राहि त्राहि दुःख हारिणी हरो बेगि सब त्रास। जयति जयति जय लक्ष्मी करो शत्रुन का नाश॥ रामदास धरि ध्यान नित विनय करत कर जोर। मातु लक्ष्मी दास पर करहु दया की कोर॥ |
श्री महालक्ष्मी चालीसा |
दोहा |
जय जय श्री महालक्ष्मी करूँ माता तव ध्यान सिद्ध काज मम किजिये निज शिशु सेवक जान |
चौपाई |
नमो महा लक्ष्मी जय माता , तेरो नाम जगत विख्याता आदि शक्ति हो माता भवानी, पूजत सब नर मुनि ज्ञानी |
जगत पालिनी सब सुख करनी, निज जनहित भण्डारण भरनी श्वेत कमल दल पर तव आसन, मात सुशोभित है पद्मासन |
श्वेताम्बर अरू श्वेता भूषण श्वेतही श्वेत सुसज्जित पुष्पन शीश छत्र अति रूप विशाला, गल सोहे मुक्तन की माला |
सुंदर सोहे कुंचित केशा, विमल नयन अरु अनुपम भेषा कमल नयन समभुज तव चारि , सुरनर मुनिजनहित सुखकारी |
अद्भूत छटा मात तव बानी, सकल विश्व की हो सुखखानी शांतिस्वभाव मृदुलतव भवानी, सकल विश्व की हो सुखखानी |
महालक्ष्मी धन्य हो माई, पंच तत्व में सृष्टि रचाई जीव चराचर तुम उपजाये, पशु पक्षी नर नारी बनाये |
क्षितितल अगणित वृक्ष जमाए, अमित रंग फल फूल सुहाए छवि विलोक सुरमुनि नर नारी, करे सदा तव जय जय कारी |
सुरपति और नरपति सब ध्यावें, तेरे सम्मुख शीश नवायें चारहु वेदन तब यश गाये, महिमा अगम पार नहीं पाये |
जापर करहु मात तुम दाया, सोइ जग में धन्य कहाया पल में राजाहि रंक बनाओ, रंक राव कर बिमल न लाओ |
जिन घर करहुं मात तुम बासा, उनका यश हो विश्व प्रकाशा जो ध्यावै से बहु सुख पावै, विमुख रहे जो दुख उठावै |
महालक्ष्मी जन सुख दाई, ध्याऊं तुमको शीश नवाई निज जन जानी मोहीं अपनाओ, सुख संपत्ति दे दुख नशाओ |
ॐ श्री श्री जयसुखकी खानी, रिद्धि सिद्धि देउ मात जनजानी ॐ ह्रीं- ॐ ह्रीं सब व्याधिहटाओ, जनउर विमल दृष्टि दर्शाओ |
ॐ क्लीं- ॐ क्लीं शत्रु क्षय कीजै, जनहीत मात अभय वर दीजै ॐ जय जयति जय जयजननी, सकल काज भक्तन के करनी |
ॐ नमो-नमो भवनिधि तारणी, तरणि भंवर से पार उतारिनी सुनहु मात यह विनय हमारी, पुरवहु आस करहु अबारी |
ऋणी दुखी जो तुमको ध्यावै, सो प्राणी सुख संपत्ति पावै रोग ग्रसित जो ध्यावै कोई, ताकि निर्मल काया होई |
विष्णु प्रिया जय जय महारानी, महिमा अमित ना जाय बखानी पुत्रहीन जो ध्यान लगावै, पाये सुत अतिहि हुलसावै |
त्राहि त्राहि शरणागत तेरी, करहु मात अब नेक न देरी आवहु मात विलंब ना कीजै, हृदय निवास भक्त वर दीजै |
जानूं जप तप का नहीं भेवा, पार करो अब भवनिधि वन खेवा विनवों बार बार कर जोरी, पुरण आशा करहु अब मोरी |
जानी दास मम संकट टारौ, सकल व्याधि से मोहिं उबारो जो तव सुरति रहै लव लाई, सो जग पावै सुयश बढ़ाई |
छायो यश तेरा संसारा, पावत शेष शम्भु नहिं पारा कमल निशदिन शरण तिहारि, करहु पूरण अभिलाष हमारी |
दोहा |
महालक्ष्मी चालीसा पढ़ै सुने चित्त लाय ताहि पदारथ मिलै अब कहै वेद यश गाय |
श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा |
दोहा |
नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदम्ब । सन्तजनों के काज में, करती नहीं विलम्ब ॥ |
चौपाई |
जय जय जय विन्ध्याचल रानी। आदिशक्ति जगविदित भवानी ॥ सिंहवाहिनी जै जगमाता । जै जै जै त्रिभुवन सुखदाता ॥ |
कष्ट निवारण जै जगदेवी । जै जै सन्त असुर सुर सेवी ॥ महिमा अमित अपार तुम्हारी । शेष सहस मुख वर्णत हारी॥ |
दीनन को दु:ख हरत भवानी । नहिं देखो तुम सम कोउ दानी ॥ सब कर मनसा पुरवत माता । महिमा अमित जगत विख्याता ॥ |
जो जन ध्यान तुम्हारो लावै । सो तुरतहि वांछित फल पावै ॥ तुम्हीं वैष्णवी तुम्हीं रुद्रानी । तुम्हीं शारदा अरु ब्रह्मानी ॥ |
रमा राधिका श्यामा काली । तुम्हीं मातु सन्तन प्रतिपाली ॥ उमा माध्वी चण्डी ज्वाला । वेगि मोहि पर होहु दयाला ॥ |
तुम्हीं हिंगलाज महारानी । तुम्हीं शीतला अरु विज्ञानी ॥ दुर्गा दुर्ग विनाशिनी माता । तुम्हीं लक्ष्मी जग सुख दाता ॥ |
तुम्हीं जाह्नवी अरु रुद्रानी । हे मावती अम्ब निर्वानी ॥ अष्टभुजी वाराहिनि देवा । करत विष्णु शिव जाकर सेवा ॥ |
चौंसट्ठी देवी कल्यानी । गौरि मंगला सब गुनखानी ॥ पाटन मुम्बादन्त कुमारी । भाद्रिकालि सुनि विनय हमारी ॥ |
बज्रधारिणी शोक नाशिनी । आयु रक्षिनी विन्ध्यवासिनी ॥ जया और विजया वैताली । मातु सुगन्धा अरु विकराली ॥ |
नाम अनन्त तुम्हारि भवानी । वरनै किमि मानुष अज्ञानी ॥ जापर कृपा मातु तब होई । जो वह करै चाहे मन जोई ॥ |
कृपा करहु मोपर महारानी । सिद्ध करहु अम्बे मम बानी ॥ जो नर धरै मातु कर ध्याना । ताकर सदा होय कल्याना ॥ |
विपति ताहि सपनेहु नाहिं आवै । जो देवीकर जाप करावै ॥ जो नर कहँ ऋण होय अपारा । सो नर पाठ करै शत बारा ॥ |
निश्चय ऋण मोचन होई जाई । जो नर पाठ करै चित लाई ॥ अस्तुति जो नर पढ़े पढ़अवे । या जग में सो बहु सुख पावे ॥ |
जाको व्याधि सतावे भाई । जाप करत सब दूर पराई ॥ जो नर अति बन्दी महँ होई । बार हजार पाठ करि सोई ॥ |
निश्चय बन्दी ते छुट जाई । सत्य वचन मम मानहु भाई ॥ जापर जो कछु संकट होई । निश्चय देविहिं सुमिरै सोई ॥ |
जा कहँ पुत्र होय नहिं भाई । सो नर या विधि करे उपाई ॥ पाँच वर्ष जो पाठ करावै । नौरातन महँ विप्र जिमावै ॥ |
निश्चय होहिं प्रसन्न भवानी । पुत्र देहिं ता कहँ गुणखानी ॥ ध्वजा नारियल आन चढ़ावै । विधि समेत पूजन करवावै ॥ |
नित प्रति पाठ करै मन लाई । प्रेम सहित नहिं आन उपाई ॥ यह श्री विन्ध्याचल चालीसा । रंक पढ़त होवे अवनीसा ॥ |
यह जन अचरज मानहु भाई । कृपा दृश्टि जापर होइ जाई ॥ जै जै जै जग मातु भवानी । कृपा करहु मोहि निज जन जानी ॥ |
श्री सरस्वती चालीसा |
दोहा |
जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि। बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥ पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु। दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥ |
चौपाई |
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी। जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥ जय जय जय वीणाकर धारी। करती सदा सुहंस सवारी॥ |
रूप चतुर्भुज धारी माता। सकल विश्व अन्दर विख्याता॥ जग में पाप बुद्धि जब होती। तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥ |
तब ही मातु का निज अवतारी। पाप हीन करती महतारी॥ वाल्मीकिजी थे हत्यारा। तव प्रसाद जानै संसारा॥ |
रामचरित जो रचे बनाई। आदि कवि की पदवी पाई॥ कालिदास जो भये विख्याता। तेरी कृपा दृष्टि से माता॥ |
तुलसी सूर आदि विद्वाना। भये और जो ज्ञानी नाना॥ तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा। केव कृपा आपकी अम्बा॥ |
करहु कृपा सोइ मातु भवानी। दुखित दीन निज दासहि जानी॥ पुत्र करहिं अपराध बहूता। तेहि न धरई चित माता॥ |
राखु लाज जननि अब मेरी। विनय करउं भांति बहु तेरी॥ मैं अनाथ तेरी अवलंबा। कृपा करउ जय जय जगदंबा॥ |
मधुकैटभ जो अति बलवाना। बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥ समर हजार पाँच में घोरा। फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥ |
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला। बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥ तेहि ते मृत्यु भई खल केरी। पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥ |
चंड मुण्ड जो थे विख्याता। क्षण महु संहारे उन माता॥ रक्त बीज से समरथ पापी। सुरमुनि हदय धरा सब काँपी॥ |
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा। बारबार बिन वउं जगदंबा॥ जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा। क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥ |
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई। रामचन्द्र बनवास कराई॥ एहिविधि रावण वध तू कीन्हा। सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥ |
को समरथ तव यश गुन गाना। निगम अनादि अनंत बखाना॥ विष्णु रुद्र जस कहिन मारी। जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥ |
रक्त दन्तिका और शताक्षी। नाम अपार है दानव भक्षी॥ दुर्गम काज धरा पर कीन्हा। दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥ |
दुर्ग आदि हरनी तू माता। कृपा करहु जब जब सुखदाता॥ नृप कोपित को मारन चाहे। कानन में घेरे मृग नाहे॥ |
सागर मध्य पोत के भंजे। अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥ भूत प्रेत बाधा या दुःख में। हो दरिद्र अथवा संकट में॥ |
नाम जपे मंगल सब होई। संशय इसमें करई न कोई॥ पुत्रहीन जो आतुर भाई। सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥ |
करै पाठ नित यह चालीसा। होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥ धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै। संकट रहित अवश्य हो जावै॥ |
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥ बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥ |
रामसागर बाँधि हेतु भवानी। कीजै कृपा दास निज जानी। |
दोहा |
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप। डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप॥ बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु। राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥ |
श्री गायत्री चालीसा |
दोहा |
ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा जीवन ज्योति प्रचंड ॥ शांति कांति जागृत प्रगति रचना शक्ति अखंड ॥ जगत जननी मंगल करनि गायत्री सुखधाम । प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम ॥ |
चौपाई |
भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी । गायत्री नित कलिमल दहनी ॥॥ अक्षर चौबीस परम पुनीता । इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता ॥॥ |
शाश्वत सतोगुणी सत रूपा । सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥॥ हंसारूढ श्वेतांबर धारी । स्वर्ण कांति शुचि गगन-बिहारी ॥॥ |
पुस्तक पुष्प कमंडलु माला । शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥॥ ध्यान धरत पुलकित हित होई । सुख उपजत दुख दुर्मति खोई ॥॥ |
कामधेनु तुम सुर तरु छाया । निराकार की अद्भुत माया ॥॥ तुम्हरी शरण गहै जो कोई । तरै सकल संकट सों सोई ॥॥ |
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली । दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥॥ तुम्हरी महिमा पार न पावैं । जो शारद शत मुख गुन गावैं ॥॥ |
चार वेद की मात पुनीता । तुम ब्रह्माणी गौरी सीता ॥॥ महामंत्र जितने जग माहीं । कोउ गायत्री सम नाहीं ॥॥ |
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै । आलस पाप अविद्या नासै ॥॥ सृष्टि बीज जग जननि भवानी । कालरात्रि वरदा कल्याणी ॥॥ |
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते । तुम सों पावें सुरता तेते ॥॥ तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे । जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥॥ |
महिमा अपरम्पार तुम्हारी । जय जय जय त्रिपदा भयहारी ॥॥ पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना । तुम सम अधिक न जगमें आना ॥॥ |
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा । तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेसा ॥॥ जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥॥ |
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई । माता तुम सब ठौर समाई ॥॥ ग्रह नक्षत्र ब्रह्मांड घनेरे । सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥॥ |
सकल सृष्टि की प्राण विधाता । पालक पोषक नाशक त्राता ॥॥ मातेश्वरी दया व्रत धारी । तुम सन तरे पातकी भारी ॥॥ |
जापर कृपा तुम्हारी होई । तापर कृपा करें सब कोई ॥॥ मंद बुद्धि ते बुधि बल पावें । रोगी रोग रहित हो जावें ॥॥ |
दरिद्र मिटै कटै सब पीरा । नाशै दुख हरै भव भीरा ॥॥ गृह क्लेश चित चिंता भारी । नासै गायत्री भय हारी ॥॥ |
संतति हीन सुसंतति पावें । सुख संपति युत मोद मनावें ॥॥ भूत पिशाच सबै भय खावें । यम के दूत निकट नहिं आवें ॥॥ |
जो सधवा सुमिरें चित लाई । अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥॥ घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी । विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥॥ |
जयति जयति जगदंब भवानी । तुम सम ओर दयालु न दानी ॥॥ जो सतगुरु सो दीक्षा पावे । सो साधन को सफल बनावे ॥॥ |
सुमिरन करे सुरूचि बडभागी । लहै मनोरथ गृही विरागी ॥॥ अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता । सब समर्थ गायत्री माता ॥॥ |
ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी । आरत अर्थी चिंतित भोगी ॥॥ जो जो शरण तुम्हारी आवें । सो सो मन वांछित फल पावें ॥॥ |
बल बुधि विद्या शील स्वभाउ । धन वैभव यश तेज उछाउ ॥॥ सकल बढें उपजें सुख नाना । जे यह पाठ करै धरि ध्याना ॥ |
दोहा |
यह चालीसा भक्ति युत पाठ करै जो कोई । तापर कृपा प्रसन्नता गायत्री की होय ॥ |
श्री काली चालीसा |
दोहा |
जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार महिष मर्दिनी कालिका, देहु अभय अपार ॥ |
चौपाई |
अरि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥ अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥ |
भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥ दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥ |
चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥ सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥ |
अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥ भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥ |
महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥ पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥ |
शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥ तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥ |
रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥ नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥ |
कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥ महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥ |
भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥ आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥ |
कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥ ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥ |
कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥ सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥ |
त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥ खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥ |
रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥ तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥ |
ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥ तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥ |
बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥ करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥ |
तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥ शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥ |
मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥ दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥ |
संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥ प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥ |
काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥ दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥ |
करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥ सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥ |
दोहा |
प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ । तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥ |
श्री महाकाली चालीसा |
दोहा |
जय जय सीताराम के मध्यवासिनी अम्ब, देहु दर्श जगदम्ब अब करहु न मातु विलम्ब ॥ जय तारा जय कालिका जय दश विद्या वृन्द, काली चालीसा रचत एक सिद्धि कवि हिन्द ॥ प्रातः काल उठ जो पढ़े दुपहरिया या शाम, दुःख दरिद्रता दूर हों सिद्धि होय सब काम ॥ |
चौपाई |
जय काली कंकाल मालिनी, जय मंगला महाकपालिनी ॥ रक्तबीज वधकारिणी माता, सदा भक्तन की सुखदाता ॥ |
शिरो मालिका भूषित अंगे, जय काली जय मद्य मतंगे ॥ हर हृदयारविन्द सुविलासिनी, जय जगदम्बा सकल दुःख नाशिनी ॥ |
ह्रीं काली श्रीं महाकाराली, क्रीं कल्याणी दक्षिणाकाली ॥ जय कलावती जय विद्यावति, जय तारासुन्दरी महामति ॥ |
देहु सुबुद्धि हरहु सब संकट, होहु भक्त के आगे परगट ॥ जय ॐ कारे जय हुंकारे, महाशक्ति जय अपरम्पारे ॥ |
कमला कलियुग दर्प विनाशिनी, सदा भक्तजन की भयनाशिनी ॥ अब जगदम्ब न देर लगावहु, दुख दरिद्रता मोर हटावहु ॥ |
जयति कराल कालिका माता, कालानल समान घुतिगाता ॥ जयशंकरी सुरेशि सनातनि, कोटि सिद्धि कवि मातु पुरातनी ॥ |
कपर्दिनी कलि कल्प विमोचनि, जय विकसित नव नलिन विलोचनी ॥ आनन्दा करणी आनन्द निधाना, देहुमातु मोहि निर्मल ज्ञाना ॥ |
करूणामृत सागरा कृपामयी, होहु दुष्ट जन पर अब निर्दयी ॥ सकल जीव तोहि परम पियारा, सकल विश्व तोरे आधारा ॥ |
प्रलय काल में नर्तन कारिणि, जग जननी सब जग की पालिनी ॥ महोदरी माहेश्वरी माया, हिमगिरि सुता विश्व की छाया ॥ |
स्वछन्द रद मारद धुनि माही, गर्जत तुम्ही और कोउ नाहि ॥ स्फुरति मणिगणाकार प्रताने, तारागण तू व्योम विताने ॥ |
श्रीधारे सन्तन हितकारिणी, अग्निपाणि अति दुष्ट विदारिणि ॥ धूम्र विलोचनि प्राण विमोचिनी, शुम्भ निशुम्भ मथनि वर लोचनि ॥ |
सहस भुजी सरोरूह मालिनी, चामुण्डे मरघट की वासिनी ॥ खप्पर मध्य सुशोणित साजी, मारेहु माँ महिषासुर पाजी ॥ |
अम्ब अम्बिका चण्ड चण्डिका, सब एके तुम आदि कालिका ॥ अजा एकरूपा बहुरूपा, अकथ चरित्रा शक्ति अनूपा ॥ |
कलकत्ता के दक्षिण द्वारे, मूरति तोरि महेशि अपारे ॥ कादम्बरी पानरत श्यामा, जय माँतगी काम के धामा ॥ |
कमलासन वासिनी कमलायनि, जय श्यामा जय जय श्यामायनि ॥ मातंगी जय जयति प्रकृति हे, जयति भक्ति उर कुमति सुमति हे ॥ |
कोटि ब्रह्म शिव विष्णु कामदा, जयति अहिंसा धर्म जन्मदा ॥ जलथल नभ मण्डल में व्यापिनी, सौदामिनी मध्य आलापिनि ॥ |
झननन तच्छु मरिरिन नादिनी, जय सरस्वती वीणा वादिनी ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे, कलित कण्ठ शोभित नरमुण्डा ॥ |
जय ब्रह्माण्ड सिद्धि कवि माता, कामाख्या और काली माता ॥ हिंगलाज विन्ध्याचल वासिनी, अटठहासिनि अरु अघन नाशिनी ॥ |
कितनी स्तुति करूँ अखण्डे, तू ब्रह्माण्डे शक्तिजित चण्डे ॥ करहु कृपा सब पे जगदम्बा, रहहिं निशंक तोर अवलम्बा ॥ |
चतुर्भुजी काली तुम श्यामा, रूप तुम्हार महा अभिरामा ॥ खड्ग और खप्पर कर सोहत, सुर नर मुनि सबको मन मोहत ॥ |
तुम्हारी कृपा पावे जो कोई, रोग शोक नहिं ताकहँ होई ॥ जो यह पाठ करै चालीसा, तापर कृपा करहिं गौरीशा ॥ |
दोहा |
जय कपालिनी जय शिवा, जय जय जय जगदम्ब, सदा भक्तजन केरि दुःख हरहु, मातु अविलम्ब ॥ |
श्री शीतला चालीसा |
दोहा |
जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान। होय बिमल शीतल हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान।। घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार। शीतल छैंय्या शीतल मैंय्या पल ना दार।। |
चौपाई |
जय जय श्री शीतला भवानी। जय जग जननि सकल गुणधानी।। गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती। पूरन शरन चंद्रसा साजती।। |
विस्फोटक सी जलत शरीरा। शीतल करत हरत सब पीड़ा।। मात शीतला तव शुभनामा। सबके काहे आवही कामा।। |
शोक हरी शंकरी भवानी। बाल प्राण रक्षी सुखदानी।। सूचि बार्जनी कलश कर राजै। मस्तक तेज सूर्य सम साजै।। |
चौसट योगिन संग दे दावै। पीड़ा ताल मृदंग बजावै।। नंदिनाथ भय रो चिकरावै। सहस शेष शिर पार ना पावै।। |
धन्य धन्य भात्री महारानी। सुर नर मुनी सब सुयश बधानी।। ज्वाला रूप महाबल कारी। दैत्य एक विश्फोटक भारी।। |
हर हर प्रविशत कोई दान क्षत। रोग रूप धरी बालक भक्षक।। हाहाकार मचो जग भारी। सत्यो ना जब कोई संकट कारी।। |
तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा। कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा।। विस्फोटक हि पकड़ी करी लीन्हो। मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो।। |
बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा। मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा।। अब नही मातु काहू गृह जै हो। जह अपवित्र वही घर रहि हो।। |
पूजन पाठ मातु जब करी है। भय आनंद सकल दुःख हरी है।। अब भगतन शीतल भय जै हे। विस्फोटक भय घोर न सै हे।। |
श्री शीतल ही बचे कल्याना। बचन सत्य भाषे भगवाना।। कलश शीतलाका करवावै। वृजसे विधीवत पाठ करावै।। |
विस्फोटक भय गृह गृह भाई। भजे तेरी सह यही उपाई।। तुमही शीतला जगकी माता। तुमही पिता जग के सुखदाता।। |
तुम ही जगका अतिसुख सेवी। नमो नमामी शीतले देवी।। नमो सूर्य करवी दुख हरणी। नमो नमो जग तारिणी धरणी।। |
नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी। दुख दारिद्रा निस निखंदिनी।। श्री शीतला शेखला बहला। गुणकी गुणकी मातृ मंगला।। |
मात शीतला तुम धनुधारी। शोभित पंचनाम असवारी।। राघव खर बैसाख सुनंदन। कर भग दुरवा कंत निकंदन।। |
सुनी रत संग शीतला माई। चाही सकल सुख दूर धुराई।। कलका गन गंगा किछु होई। जाकर मंत्र ना औषधी कोई।। |
हेत मातजी का आराधन। और नही है कोई साधन।। निश्चय मातु शरण जो आवै। निर्भय ईप्सित सो फल पावै।। |
कोढी निर्मल काया धारे। अंधा कृत नित दृष्टी विहारे।। बंधा नारी पुत्रको पावे। जन्म दरिद्र धनी हो जावे।। |
सुंदरदास नाम गुण गावत। लक्ष्य मूलको छंद बनावत।। या दे कोई करे यदी शंका। जग दे मैंय्या काही डंका।। |
कहत राम सुंदर प्रभुदासा। तट प्रयाग से पूरब पासा।। ग्राम तिवारी पूर मम बासा। प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा।। |
अब विलंब भय मोही पुकारत। मातृ कृपा की बाट निहारत।। बड़ा द्वार सब आस लगाई। अब सुधि लेत शीतला माई।। |
दोहा |
यह चालीसा शीतला पाठ करे जो कोय। सपनें दुख व्यापे नही नित सब मंगल होय।। बुझे सहस्र विक्रमी शुक्ल भाल भल किंतू। जग जननी का ये चरित रचित भक्ति रस बिंतू।। |
श्री राधा चालीसा |
दोहा |
श्री राधे वुषभानुजा , भक्तनि प्राणाधार । वृन्दाविपिन विहारिणी , प्रानावौ बारम्बार ॥ जैसो तैसो रावरौ, कृष्ण प्रिय सुखधाम । चरण शरण निज दीजिये सुन्दर सुखद ललाम ॥ |
चौपाई |
जय वृषभानु कुँवरी श्री श्यामा, कीरति नंदिनी शोभा धामा । नित्य बिहारिनी रस विस्तारिणी, अमित मोद मंगल दातारा ॥ |
राम विलासिनी रस विस्तारिणी, सहचरी सुभग यूथ मन भावनी । करुणा सागर हिय उमंगिनी, ललितादिक सखियन की संगिनी ॥ |
दिनकर कन्या कुल विहारिनी, कृष्ण प्राण प्रिय हिय हुलसावनी । नित्य श्याम तुमररौ गुण गावै, राधा राधा कही हरशावै ॥ |
मुरली में नित नाम उचारें, तुम कारण लीला वपु धारें । प्रेम स्वरूपिणी अति सुकुमारी, श्याम प्रिया वृषभानु दुलारी ॥ |
नवल किशोरी अति छवि धामा, द्दुति लधु लगै कोटि रति कामा । गोरांगी शशि निंदक वंदना, सुभग चपल अनियारे नयना ॥ |
जावक युत युग पंकज चरना, नुपुर धुनी प्रीतम मन हरना । संतत सहचरी सेवा करहिं, महा मोद मंगल मन भरहीं ॥ |
रसिकन जीवन प्राण अधारा, राधा नाम सकल सुख सारा । अगम अगोचर नित्य स्वरूपा, ध्यान धरत निशिदिन ब्रज भूपा ॥ |
उपजेउ जासु अंश गुण खानी, कोटिन उमा राम ब्रह्मिनी । नित्य धाम गोलोक विहारिन, जन रक्षक दुःख दोष नसावनि ॥ |
शिव अज मुनि सनकादिक नारद, पार न पाँई शेष शारद । राधा शुभ गुण रूप उजारी, निरखि प्रसन होत बनवारी ॥ |
ब्रज जीवन धन राधा रानी, महिमा अमित न जाय बखानी । प्रीतम संग दे ई गलबाँही, बिहरत नित वृन्दावन माँहि ॥ |
राधा कृष्ण कृष्ण कहैं राधा, एक रूप दोउ प्रीति अगाधा । श्री राधा मोहन मन हरनी, जन सुख दायक प्रफुलित बदनी ॥ |
कोटिक रूप धरे नंद नंदा, दर्श करन हित गोकुल चंदा । रास केलि करी तुहे रिझावें, मन करो जब अति दुःख पावें ॥ |
प्रफुलित होत दर्श जब पावें, विविध भांति नित विनय सुनावे । वृन्दारण्य विहारिनी श्यामा, नाम लेत पूरण सब कामा ॥ |
कोटिन यज्ञ तपस्या करहु, विविध नेम व्रतहिय में धरहु । तऊ न श्याम भक्तहिं अहनावें, जब लगी राधा नाम न गावें ॥ |
व्रिन्दाविपिन स्वामिनी राधा, लीला वपु तब अमित अगाधा । स्वयं कृष्ण पावै नहीं पारा, और तुम्हैं को जानन हारा ॥ |
श्री राधा रस प्रीति अभेदा, सादर गान करत नित वेदा । राधा त्यागी कृष्ण को भाजिहैं, ते सपनेहूं जग जलधि न तरिहैं ॥ |
कीरति हूँवारी लडिकी राधा, सुमिरत सकल मिटहिं भव बाधा । नाम अमंगल मूल नसावन, त्रिविध ताप हर हरी मनभावना ॥ |
राधा नाम परम सुखदाई, भजतहीं कृपा करहिं यदुराई । यशुमति नंदन पीछे फिरेहै, जी कोऊ राधा नाम सुमिरिहै ॥ |
रास विहारिनी श्यामा प्यारी, करहु कृपा बरसाने वारी । वृन्दावन है शरण तिहारी, जय जय जय वृषभानु दुलारी ॥ |
दोहा |
श्री राधा सर्वेश्वरी , रसिकेश्वर धनश्याम । करहूँ निरंतर बास मै, श्री वृन्दावन धाम ॥ |
श्री तुलसी चालीसा |
दोहा |
जय जय तुलसी भगवती सत्यवती सुखदानी। नमो नमो हरी प्रेयसी श्री वृंदा गुन खानी।। श्री हरी शीश बिरजिनी , देहु अमर वर अम्ब। जनहित हे वृन्दावनी अब न करहु विलम्ब ।। |
चौपाई |
धन्य धन्य श्री तलसी माता । महिमा अगम सदा श्रुति गाता ।। हरी के प्राणहु से तुम प्यारी । हरीहीं हेतु कीन्हो ताप भारी।। |
जब प्रसन्न है दर्शन दीन्ह्यो । तब कर जोरी विनय उस कीन्ह्यो ।। हे भगवंत कंत मम होहू । दीन जानी जनि छाडाहू छोहु ।। |
सुनी लख्मी तुलसी की बानी । दीन्हो श्राप कध पर आनी ।। उस अयोग्य वर मांगन हारी । होहू विटप तुम जड़ तनु धारी ।। |
सुनी तुलसी हीं श्रप्यो तेहिं ठामा । करहु वास तुहू नीचन धामा ।। दियो वचन हरी तब तत्काला । सुनहु सुमुखी जनि होहू बिहाला।। |
समय पाई व्हौ रौ पाती तोरा । पुजिहौ आस वचन सत मोरा ।। तब गोकुल मह गोप सुदामा । तासु भई तुलसी तू बामा ।। |
कृष्ण रास लीला के माही । राधे शक्यो प्रेम लखी नाही ।। दियो श्राप तुलसिह तत्काला । नर लोकही तुम जन्महु बाला ।। |
यो गोप वह दानव राजा । शंख चुड नामक शिर ताजा ।। तुलसी भई तासु की नारी । परम सती गुण रूप अगारी ।। |
अस द्वै कल्प बीत जब गयऊ । कल्प तृतीय जन्म तब भयऊ।। वृंदा नाम भयो तुलसी को । असुर जलंधर नाम पति को ।। |
करि अति द्वन्द अतुल बलधामा । लीन्हा शंकर से संग्राम ।। जब निज सैन्य सहित शिव हारे । मरही न तब हर हरिही पुकारे ।। |
पतिव्रता वृंदा थी नारी । कोऊ न सके पतिहि संहारी ।। तब जलंधर ही भेष बनाई । वृंदा ढिग हरी पहुच्यो जाई ।। |
शिव हित लही करि कपट प्रसंगा । कियो सतीत्व धर्म तोही भंगा ।। भयो जलंधर कर संहारा। सुनी उर शोक उपारा ।। |
तिही क्षण दियो कपट हरी टारी । लखी वृंदा दुःख गिरा उचारी ।। जलंधर जस हत्यो अभीता । सोई रावन तस हरिही सीता ।। |
अस प्रस्तर सम ह्रदय तुम्हारा । धर्म खंडी मम पतिहि संहारा ।। यही कारण लही श्राप हमारा । होवे तनु पाषाण तुम्हारा।। |
सुनी हरी तुरतहि वचन उचारे । दियो श्राप बिना विचारे ।। लख्यो न निज करतूती पति को । छलन चह्यो जब पारवती को ।। |
जड़मति तुहु अस हो जड़रूपा । जग मह तुलसी विटप अनूपा ।। धग्व रूप हम शालिगरामा । नदी गण्डकी बीच ललामा ।। |
जो तुलसी दल हमही चढ़ इहैं । सब सुख भोगी परम पद पईहै ।। बिनु तुलसी हरी जलत शरीरा । अतिशय उठत शीश उर पीरा ।। |
जो तुलसी दल हरी शिर धारत । सो सहस्त्र घट अमृत डारत ।। तुलसी हरी मन रंजनी हारी। रोग दोष दुःख भंजनी हारी ।। |
प्रेम सहित हरी भजन निरंतर । तुलसी राधा में नाही अंतर ।। व्यंजन हो छप्पनहु प्रकारा । बिनु तुलसी दल न हरीहि प्यारा ।। |
सकल तीर्थ तुलसी तरु छाही । लहत मुक्ति जन संशय नाही ।। कवि सुन्दर इक हरी गुण गावत । तुलसिहि निकट सहसगुण पावत ।। |
बसत निकट दुर्बासा धामा । जो प्रयास ते पूर्व ललामा ।। पाठ करहि जो नित नर नारी । होही सुख भाषहि त्रिपुरारी ।। |
दोहा |
तुलसी चालीसा पढ़ही तुलसी तरु ग्रह धारी । दीपदान करि पुत्र फल पावही बंध्यहु नारी ।। सकल दुःख दरिद्र हरी हार ह्वै परम प्रसन्न । आशिय धन जन लड़हि ग्रह बसही पूर्णा अत्र ।। लाही अभिमत फल जगत मह लाही पूर्ण सब काम। जेई दल अर्पही तुलसी तंह सहस बसही हरीराम ।। तुलसी महिमा नाम लख तुलसी सूत सुखराम। मानस चालीस रच्यो जग महं तुलसीदास ।। |
श्री वैष्णो देवी चालीसा |
दोहा |
गरुड़ वाहिनी वैष्णवी त्रिकुटा पर्वत धाम काली, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति तुम्हें प्रणाम |
चौपाई |
नमो: नमो: वैष्णो वरदानी, कलि काल मे शुभ कल्याणी। मणि पर्वत पर ज्योति तुम्हारी, पिंडी रूप में हो अवतारी॥ |
देवी देवता अंश दियो है, रत्नाकर घर जन्म लियो है। करी तपस्या राम को पाऊँ, त्रेता की शक्ति कहलाऊँ॥ |
कहा राम मणि पर्वत जाओ, कलियुग की देवी कहलाओ। विष्णु रूप से कल्कि बनकर, लूंगा शक्ति रूप बदलकर॥ |
तब तक त्रिकुटा घाटी जाओ, गुफा अंधेरी जाकर पाओ। काली-लक्ष्मी-सरस्वती माँ, करेंगी पोषण पार्वती माँ॥ |
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर द्वारे, हनुमत, भैरों प्रहरी प्यारे। रिद्धि, सिद्धि चंवर डुलावें, कलियुग-वासी पूजत आवें॥ |
पान सुपारी ध्वजा नारीयल, चरणामृत चरणों का निर्मल। दिया फलित वर मॉ मुस्काई, करन तपस्या पर्वत आई॥ |
कलि कालकी भड़की ज्वाला, इक दिन अपना रूप निकाला। कन्या बन नगरोटा आई, योगी भैरों दिया दिखाई॥ |
रूप देख सुंदर ललचाया, पीछे-पीछे भागा आया। कन्याओं के साथ मिली मॉ, कौल-कंदौली तभी चली मॉ॥ |
देवा माई दर्शन दीना, पवन रूप हो गई प्रवीणा। नवरात्रों में लीला रचाई, भक्त श्रीधर के घर आई॥ |
योगिन को भण्डारा दीनी, सबने रूचिकर भोजन कीना। मांस, मदिरा भैरों मांगी, रूप पवन कर इच्छा त्यागी॥ |
बाण मारकर गंगा निकली, पर्वत भागी हो मतवाली। चरण रखे आ एक शीला जब, चरण-पादुका नाम पड़ा तब॥ |
पीछे भैरों था बलकारी, चोटी गुफा में जाय पधारी। नौ मह तक किया निवासा, चली फोड़कर किया प्रकाशा॥ |
आद्या शक्ति-ब्रह्म कुमारी, कहलाई माँ आद कुंवारी। गुफा द्वार पहुँची मुस्काई, लांगुर वीर ने आज्ञा पाई॥ |
भागा-भागा भैंरो आया, रक्षा हित निज शस्त्र चलाया। पड़ा शीश जा पर्वत ऊपर, किया क्षमा जा दिया उसे वर॥ |
अपने संग में पुजवाऊंगी, भैंरो घाटी बनवाऊंगी। पहले मेरा दर्शन होगा, पीछे तेरा सुमिरन होगा॥ |
बैठ गई माँ पिण्डी होकर, चरणों में बहता जल झर झर। चौंसठ योगिनी-भैंरो बर्वत, सप्तऋषि आ करते सुमरन॥ |
घंटा ध्वनि पर्वत पर बाजे, गुफा निराली सुंदर लागे। भक्त श्रीधर पूजन कीन, भक्ति सेवा का वर लीन॥ |
सेवक ध्यानूं तुमको ध्याना, ध्वजा व चोला आन चढ़ाया। सिंह सदा दर पहरा देता, पंजा शेर का दु:ख हर लेता॥ |
जम्बू द्वीप महाराज मनाया, सर सोने का छत्र चढ़ाया । हीरे की मूरत संग प्यारी, जगे अखण्ड इक जोत तुम्हारी॥ |
आश्विन चैत्र नवरात्रे आऊँ, पिण्डी रानी दर्शन पाऊँ। सेवक “कमल” शरण तिहारी, हरो वैष्णो विपत हमारी॥ |
दोहा |
कलियुग में महिमा तेरी, है माँ अपरंपार धर्म की हानि हो रही, प्रगट हो अवतार |
श्री संतोषी मां चालीसा |
दोहा |
बन्दौं संतोषी चरण रिद्धि-सिद्धि दातार। ध्यान धरत ही होत नर दुख सागर से पार॥ भक्तन को संतोष दे संतोषी तव नाम। कृपा करहु जगदंबा अब आया तेरे धाम॥ |
चौपाई |
जय संतोषी मात अनुपम। शांतिदायिनी रूप मनोरम॥ सुंदर वरण चतुर्भुज रूपा। वेश मनोहर ललित अनुपा॥ |
श्वेतांबर रूप मनहारी। मां तुम्हारी छवि जग से न्यारी॥ दिव्य स्वरूपा आयत लोचन। दर्शन से हो संकट मोचन॥ |
जय गणेश की सुता भवानी। रिद्धि-सिद्धि की पुत्री ज्ञानी॥ अगम अगोचर तुम्हरी माया। सब पर करो कृपा की छाया॥ |
नाम अनेक तुम्हारे माता। अखिल विश्व है तुमको ध्याता॥ तुमने रूप अनेक धारे। को कहि सके चरित्र तुम्हारे॥ |
धाम अनेक कहां तक कहिए। सुमिरन तब करके सुख लहिए॥ विंध्याचल में विंध्यवासिनी। कोटेश्वर सरस्वती सुहासिनी॥ |
कलकत्ते में तू ही काली। दुष्ट नाशिनी महाकराली॥ संबल पुर बहुचरा कहाती। भक्तजनों का दुख मिटाती॥ |
ज्वाला जी में ज्वाला देवी। पूजत नित्य भक्त जन सेवी॥ नगर बम्बई की महारानी। महा लक्ष्मी तुम कल्याणी॥ |
मदुरा में मीनाक्षी तुम हो। सुख दुख सबकी साक्षी तुम हो॥ राजनगर में तुम जगदंबे। बनी भद्रकाली तुम अंबे॥ |
पावागढ़ में दुर्गा माता। अखिल विश्व तेरा यश गाता॥ काशी पुराधीश्वरी माता। अन्नपूर्णा नाम सुहाता॥ |
सर्वानंद करो कल्याणी। तुम्हीं शारदा अमृत वाणी॥ तुम्हरी महिमा जल में थल में। दुख दरिद्र सब मेटो पल में॥ |
जेते ऋषि और मुनीशा। नारद देव और देवेशा। इस जगती के नर और नारी। ध्यान धरत हैं मात तुम्हारी॥ |
जापर कृपा तुम्हारी होती। वह पाता भक्ति का मोती॥ दुख दारिद्र संकट मिट जाता। ध्यान तुम्हारा जो जन ध्याता॥ |
जो जन तुम्हरी महिमा गावै। ध्यान तुम्हारा कर सुख पावै॥ जो मन राखे शुद्ध भावना। ताकी पूरण करो कामना॥ |
कुमति निवारि सुमति की दात्री। जयति जयति माता जगधात्री॥ शुक्रवार का दिवस सुहावन। जो व्रत करे तुम्हारा पावन॥ |
गुड़ छोले का भोग लगावै। कथा तुम्हारी सुने सुनावै॥ विधिवत पूजा करे तुम्हारी। फिर प्रसाद पावे शुभकारी॥ |
शक्ति सामर्थ्य हो जो धनको। दान-दक्षिणा दे विप्रन को॥ वे जगती के नर औ नारी। मनवांछित फल पावें भारी॥ |
जो जन शरण तुम्हारी जावे। सो निश्चय भव से तर जावे॥ तुम्हरो ध्यान कुमारी ध्यावे। निश्चय मनवांछित वर पावै॥ |
सधवा पूजा करे तुम्हारी। अमर सुहागिन हो वह नारी॥ विधवा धर के ध्यान तुम्हारा। भवसागर से उतरे पारा॥ |
जयति जयति जय संकट हरणी। विघ्न विनाशन मंगल करनी॥ हम पर संकट है अति भारी। वेगि खबर लो मात हमारी॥ |
निशिदिन ध्यान तुम्हारो ध्याता। देह भक्ति वर हम को माता॥ यह चालीसा जो नित गावे। सो भवसागर से तर जावे॥ |
श्री माँ अन्नपूर्णा चालीसा |
दोहा |
विश्वेश्वर पदपदम की रज निज शीश लगाय । अन्नपूर्णे, तव सुयश बरनौं कवि मतिलाय । |
चौपाई |
नित्य आनंद करिणी माता, वर अरु अभय भाव प्रख्याता । जय ! सौंदर्य सिंधु जग जननी, अखिल पाप हर भव-भय-हरनी । |
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि, संतन तुव पद सेवत ऋषिमुनि । काशी पुराधीश्वरी माता, माहेश्वरी सकल जग त्राता । |
वृषभारुढ़ नाम रुद्राणी, विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी । पतिदेवता सुतीत शिरोमणि, पदवी प्राप्त कीन्ह गिरी नंदिनि । |
पति विछोह दुःख सहि नहिं पावा, योग अग्नि तब बदन जरावा । देह तजत शिव चरण सनेहू, राखेहु जात हिमगिरि गेहू । |
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो, अति आनंद भवन मँह छायो । नारद ने तब तोहिं भरमायहु, ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु । |
ब्रहमा वरुण कुबेर गनाये, देवराज आदिक कहि गाये । सब देवन को सुजस बखानी, मति पलटन की मन मँह ठानी । |
अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या, कीन्ही सिद्ध हिमाचल कन्या । निज कौ तब नारद घबराये, तब प्रण पूरण मंत्र पढ़ाये । |
करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ, संत बचन तुम सत्य परेखेहु । गगनगिरा सुनि टरी न टारे, ब्रह्मां तब तुव पास पधारे । |
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा, देहुँ आज तुव मति अनुरुपा । तुम तप कीन्ह अलौकिक भारी, कष्ट उठायहु अति सुकुमारी । |
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों, है सौगंध नहीं छल तोसों । करत वेद विद ब्रहमा जानहु, वचन मोर यह सांचा मानहु । |
तजि संकोच कहहु निज इच्छा, देहौं मैं मनमानी भिक्षा । सुनि ब्रहमा की मधुरी बानी, मुख सों कछु मुसुकाय भवानी । |
बोली तुम का कहहु विधाता, तुम तो जगके स्रष्टाधाता । मम कामना गुप्त नहिं तोंसों, कहवावा चाहहु का मोंसों । |
दक्ष यज्ञ महँ मरती बारा, शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा । सो अब मिलहिं मोहिं मनभाये, कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये । |
तब गिरिजा शंकर तव भयऊ, फल कामना संशयो गयऊ । चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा, तब आनन महँ करत निवासा । |
माला पुस्तक अंकुश सोहै, कर मँह अपर पाश मन मोहै । अन्न्पूर्णे ! सदापूर्णे, अज अनवघ अनंत पूर्णे । |
कृपा सागरी क्षेमंकरि माँ, भव विभूति आनंद भरी माँ । कमल विलोचन विलसित भाले, देवि कालिके चण्डि कराले । |
तुम कैलास मांहि है गिरिजा, विलसी आनंद साथ सिंधुजा । स्वर्ग महालक्ष्मी कहलायी, मर्त्य लोक लक्ष्मी पदपायी । |
विलसी सब मँह सर्व सरुपा, सेवत तोहिं अमर पुर भूपा । जो पढ़िहहिं यह तव चालीसा, फल पाइंहहि शुभ साखी ईसा । |
प्रात: समय जो जन मन लायो, पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अघिकायो । स्त्री कलत्र पति मित्र पुत्र युत, परमैश्रवर्य लाभ लहि अद्भुत । |
राज विमुख को राज दिवावै, जस तेरो जन सुजस बढ़ावै । पाठ महा मुद मंगल दाता, भक्त मनोवांछित निधि पाता । |
दोहा |
जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावैंगे माथ । तिनके कारज सिद्ध सब साखी काशी नाथ ॥ |
॥ इति श्री माँ अन्नपूर्णा चालीसा ॥ |
श्री पार्वती चालीसा |
दोहा |
जय गिरी तनये दक्षजे शम्भू प्रिये गुणखानि। गणपति जननी पार्वती अम्बे! शक्ति! भवानि॥ |
चौपाई |
ब्रह्मा भेद न तुम्हरो पावे, पंच बदन नित तुमको ध्यावे। षड्मुख कहि न सकत यश तेरो, सहसबदन श्रम करत घनेरो।। |
तेऊ पार न पावत माता, स्थित रक्षा लय हिय सजाता। अधर प्रवाल सदृश अरुणारे, अति कमनीय नयन कजरारे।। |
ललित ललाट विलेपित केशर, कुंकुंम अक्षत शोभा मनहर। कनक बसन कंचुकि सजाए, कटी मेखला दिव्य लहराए।। |
कंठ मदार हार की शोभा, जाहि देखि सहजहि मन लोभा। बालारुण अनंत छबि धारी, आभूषण की शोभा प्यारी।। |
नाना रत्न जड़ित सिंहासन, तापर राजति हरि चतुरानन। इन्द्रादिक परिवार पूजित, जग मृग नाग यक्ष रव कूजित।। |
गिर कैलास निवासिनी जय जय, कोटिक प्रभा विकासिनी जय जय। त्रिभुवन सकल कुटुंब तिहारी, अणु अणु महं तुम्हारी उजियारी।। |
हैं महेश प्राणेश तुम्हारे, त्रिभुवन के जो नित रखवारे। उनसो पति तुम प्राप्त कीन्ह जब, सुकृत पुरातन उदित भए तब।। |
बूढ़ा बैल सवारी जिनकी, महिमा का गावे कोउ तिनकी। सदा श्मशान बिहारी शंकर, आभूषण हैं भुजंग भयंकर।। |
कण्ठ हलाहल को छबि छायी, नीलकण्ठ की पदवी पायी। देव मगन के हित अस किन्हो, विष लै आपु तिनहि अमि दिन्हो।। |
ताकी, तुम पत्नी छवि धारिणी, दुरित विदारिणी मंगल कारिणी। देखि परम सौंदर्य तिहारो, त्रिभुवन चकित बनावन हारो।। |
भय भीता सो माता गंगा, लज्जा मय है सलिल तरंगा। सौत समान शम्भू पहआयी, विष्णु पदाब्ज छोड़ि सो धायी।। |
तेहि कों कमल बदन मुरझायो, लखी सत्वर शिव शीश चढ़ायो। नित्यानंद करी बरदायिनी, अभय भक्त कर नित अनपायिनी।। |
अखिल पाप त्रयताप निकन्दिनी, माहेश्वरी, हिमालय नन्दिनी। काशी पुरी सदा मन भायी, सिद्ध पीठ तेहि आपु बनायी।। |
भगवती प्रतिदिन भिक्षा दात्री, कृपा प्रमोद सनेह विधात्री। रिपुक्षय कारिणी जय जय अम्बे, वाचा सिद्ध करि अवलम्बे।। |
गौरी उमा शंकरी काली, अन्नपूर्णा जग प्रतिपाली। सब जन की ईश्वरी भगवती, पतिप्राणा परमेश्वरी सती।। |
तुमने कठिन तपस्या कीनी, नारद सों जब शिक्षा लीनी। अन्न न नीर न वायु अहारा, अस्थि मात्रतन भयउ तुम्हारा।। |
पत्र घास को खाद्य न भायउ, उमा नाम तब तुमने पायउ। तप बिलोकी ऋषि सात पधारे, लगे डिगावन डिगी न हारे।। |
तब तव जय जय जय उच्चारेउ, सप्तऋषि, निज गेह सिद्धारेउ। सुर विधि विष्णु पास तब आए, वर देने के वचन सुनाए।। |
मांगे उमा वर पति तुम तिनसों, चाहत जग त्रिभुवन निधि जिनसों। एवमस्तु कही ते दोऊ गए, सुफल मनोरथ तुमने लए।। |
करि विवाह शिव सों भामा, पुनः कहाई हर की बामा। जो पढ़िहै जन यह चालीसा, धन जन सुख देइहै तेहि ईसा।। |
दोहा |
कूटि चंद्रिका सुभग शिर, जयति जयति सुख खानि पार्वती निज भक्त हित, रहहु सदा वरदानि। |
॥इति श्री पार्वती चालीसा॥ |
श्री बगलामुखी माता |
दोहा |
सिर नवाइ बगलामुखी, लिखूं चालीसा आज ॥ कृपा करहु मोपर सदा, पूरन हो मम काज ॥ |
चौपाई |
जय जय जय श्री बगला माता । आदिशक्ति सब जग की त्राता ॥ बगला सम तब आनन माता । एहि ते भयउ नाम विख्याता ॥ |
शशि ललाट कुण्डल छवि न्यारी । असतुति करहिं देव नर-नारी ॥ पीतवसन तन पर तव राजै । हाथहिं मुद्गर गदा विराजै ॥ |
तीन नयन गल चम्पक माला । अमित तेज प्रकटत है भाला ॥ रत्न-जटित सिंहासन सोहै । शोभा निरखि सकल जन मोहै ॥ |
आसन पीतवर्ण महारानी । भक्तन की तुम हो वरदानी ॥ पीताभूषण पीतहिं चन्दन । सुर नर नाग करत सब वन्दन ॥ |
एहि विधि ध्यान हृदय में राखै । वेद पुराण संत अस भाखै ॥ अब पूजा विधि करौं प्रकाशा । जाके किये होत दुख-नाशा ॥ |
प्रथमहिं पीत ध्वजा फहरावै । पीतवसन देवी पहिरावै ॥ कुंकुम अक्षत मोदक बेसन । अबिर गुलाल सुपारी चन्दन ॥ |
माल्य हरिद्रा अरु फल पाना । सबहिं चढ़इ धरै उर ध्याना ॥ धूप दीप कर्पूर की बाती । प्रेम-सहित तब करै आरती ॥ |
अस्तुति करै हाथ दोउ जोरे । पुरवहु मातु मनोरथ मोरे ॥ मातु भगति तब सब सुख खानी । करहुं कृपा मोपर जनजानी ॥ |
त्रिविध ताप सब दुख नशावहु । तिमिर मिटाकर ज्ञान बढ़ावहु ॥ बार-बार मैं बिनवहुं तोहीं । अविरल भगति ज्ञान दो मोहीं ॥ |
पूजनांत में हवन करावै । सा नर मनवांछित फल पावै ॥ सर्षप होम करै जो कोई । ताके वश सचराचर होई ॥ |
तिल तण्डुल संग क्षीर मिरावै । भक्ति प्रेम से हवन करावै ॥ दुख दरिद्र व्यापै नहिं सोई । निश्चय सुख-सम्पत्ति सब होई ॥ |
फूल अशोक हवन जो करई । ताके गृह सुख-सम्पत्ति भरई ॥ फल सेमर का होम करीजै । निश्चय वाको रिपु सब छीजै ॥ |
गुग्गुल घृत होमै जो कोई । तेहि के वश में राजा होई ॥ गुग्गुल तिल संग होम करावै । ताको सकल बंध कट जावै ॥ |
बीलाक्षर का पाठ जो करहीं । बीज मंत्र तुम्हरो उच्चरहीं ॥ एक मास निशि जो कर जापा । तेहि कर मिटत सकल संतापा ॥ |
घर की शुद्ध भूमि जहं होई । साध्का जाप करै तहं सोई ॥ सेइ इच्छित फल निश्चय पावै । यामै नहिं कदु संशय लावै ॥ |
अथवा तीर नदी के जाई । साधक जाप करै मन लाई ॥ दस सहस्र जप करै जो कोई । सक काज तेहि कर सिधि होई ॥ |
जाप करै जो लक्षहिं बारा । ताकर होय सुयशविस्तारा ॥ जो तव नाम जपै मन लाई । अल्पकाल महं रिपुहिं नसाई ॥ |
सप्तरात्रि जो पापहिं नामा । वाको पूरन हो सब कामा ॥ नव दिन जाप करे जो कोई । व्याधि रहित ताकर तन होई ॥ |
ध्यान करै जो बन्ध्या नारी । पावै पुत्रादिक फल चारी ॥ प्रातः सायं अरु मध्याना । धरे ध्यान होवैकल्याना ॥ |
कहं लगि महिमा कहौं तिहारी । नाम सदा शुभ मंगलकारी ॥ पाठ करै जो नित्या चालीसा । तेहि पर कृपा करहिं गौरीशा ॥ |
दोहा |
सन्तशरण को तनय हूं, कुलपति मिश्र सुनाम । हरिद्वार मण्डल बसूं , धाम हरिपुर ग्राम ॥ उन्नीस सौ पिचानबे सन् की, श्रावण शुक्ला मास । चालीसा रचना कियौ, तव चरणन को दास ॥ |
॥इति श्री बगलामुखी माता चालीसा॥ |
श्री गंगा चालीसा |
स्तुति |
मात शैल्सुतास पत्नी ससुधाश्रंगार धरावली । स्वर्गारोहण जैजयंती भक्तीं भागीरथी प्रार्थये।। |
दोहा |
जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंग। जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग।। |
चौपाई |
जय जय जननी हराना अघखानी। आनंद करनी गंगा महारानी।। जय भगीरथी सुरसरि माता। कलिमल मूल डालिनी विख्याता।। |
जय जय जहानु सुता अघ हनानी। भीष्म की माता जगा जननी।। धवल कमल दल मम तनु सजे। लखी शत शरद चंद्र छवि लजाई।। |
वहां मकर विमल शुची सोहें। अमिया कलश कर लखी मन मोहें।। जदिता रत्ना कंचन आभूषण। हिय मणि हर, हरानितम दूषण।। |
जग पावनी त्रय ताप नासवनी। तरल तरंग तुंग मन भावनी।। जो गणपति अति पूज्य प्रधान। इहूं ते प्रथम गंगा अस्नाना।। |
ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी। श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि।। साथी सहस्त्र सागर सुत तरयो। गंगा सागर तीरथ धरयो।। |
अगम तरंग उठ्यो मन भवन। लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन।। तीरथ राज प्रयाग अक्षैवेता। धरयो मातु पुनि काशी करवत।। |
धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीधी। तरनी अमिता पितु पड़ पिरही।। भागीरथी ताप कियो उपारा। दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा।। |
जब जग जननी चल्यो हहराई। शम्भु जाता महं रह्यो समाई।। वर्षा पर्यंत गंगा महारानी। रहीं शम्भू के जाता भुलानी।। |
पुनि भागीरथी शम्भुहीं ध्यायो। तब इक बूंद जटा से पायो ताते मातु भें त्रय धारा। मृत्यु लोक, नाभा, अरु पातारा।। |
गईं पाताल प्रभावती नामा। मन्दाकिनी गई गगन ललामा।। मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी। कलिमल हरनी अगम जग पावनि।। |
धनि मइया तब महिमा भारी। धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी।। मातु प्रभवति धनि मंदाकिनी। धनि सुर सरित सकल भयनासिनी।। |
पन करत निर्मल गंगा जल। पावत मन इच्छित अनंत फल।। पुरव जन्म पुण्य जब जागत। तबहीं ध्यान गंगा महं लागत।। |
जई पगु सुरसरी हेतु उठावही। तई जगि अश्वमेघ फल पावहि।। महा पतित जिन कहू न तारे। तिन तारे इक नाम तिहारे।। |
शत योजन हूं से जो ध्यावहिं। निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं।। नाम भजत अगणित अघ नाशै। विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे।। |
जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना। धर्मं मूल गंगाजल पाना।। तब गुन गुणन करत दुख भाजत। गृह गृह सम्पति सुमति विराजत।। |
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत। दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।। उद्दिहिन विद्या बल पावै। रोगी रोग मुक्त हवे जावै।। |
गंगा गंगा जो नर कहहीं। भूखा नंगा कभुहुह न रहहि।। निकसत ही मुख गंगा माई। श्रवण दाबी यम चलहिं पराई।। |
महं अघिन अधमन कहं तारे। भए नरका के बंद किवारें।। जो नर जपी गंग शत नामा।। सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा।। |
सब सुख भोग परम पद पावहीं। आवागमन रहित ह्वै जावहीं।। धनि मइया सुरसरि सुख दैनि। धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।। |
ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा। सुन्दरदास गंगा कर दासा।। जो यह पढ़े गंगा चालीसा। मिली भक्ति अविरल वागीसा।। |
दोहा |
नित नए सुख सम्पति लहैं। धरें गंगा का ध्यान।। अंत समाई सुर पुर बसल। सदर बैठी विमान।। संवत भुत नभ्दिशी। राम जन्म दिन चैत्र।। पूरण चालीसा किया। हरी भक्तन हित नेत्र।। |
।।इतिश्री गंगा चालीसा समाप्त।। |
श्री नर्मदा चालीसा |
दोहा |
देवि पूजित, नर्मदा, महिमा बड़ी अपार। चालीसा वर्णन करत, कवि अरु भक्त उदार॥ इनकी सेवा से सदा, मिटते पाप महान। तट पर कर जप दान नर, पाते हैं नित ज्ञान ॥ |
चौपाई |
जय-जय-जय नर्मदा भवानी, तुम्हरी महिमा सब जग जानी। अमरकण्ठ से निकली माता, सर्व सिद्धि नव निधि की दाता। |
कन्या रूप सकल गुण खानी, जब प्रकटीं नर्मदा भवानी। सप्तमी सुर्य मकर रविवारा, अश्वनि माघ मास अवतारा। |
वाहन मकर आपको साजैं, कमल पुष्प पर आप विराजैं। ब्रह्मा हरि हर तुमको ध्यावैं, तब ही मनवांछित फल पावैं। |
दर्शन करत पाप कटि जाते, कोटि भक्त गण नित्य नहाते। जो नर तुमको नित ही ध्यावै, वह नर रुद्र लोक को जावैं। |
मगरमच्छा तुम में सुख पावैं, अंतिम समय परमपद पावैं। मस्तक मुकुट सदा ही साजैं, पांव पैंजनी नित ही राजैं। |
कल-कल ध्वनि करती हो माता, पाप ताप हरती हो माता। पूरब से पश्चिम की ओरा, बहतीं माता नाचत मोरा। |
शौनक ऋषि तुम्हरौ गुण गावैं, सूत आदि तुम्हरौं यश गावैं। शिव गणेश भी तेरे गुण गवैं, सकल देव गण तुमको ध्यावैं। |
कोटि तीर्थ नर्मदा किनारे, ये सब कहलाते दु:ख हारे। मनोकमना पूरण करती, सर्व दु:ख माँ नित ही हरतीं। |
कनखल में गंगा की महिमा, कुरुक्षेत्र में सरस्वती महिमा। पर नर्मदा ग्राम जंगल में, नित रहती माता मंगल में। |
एक बार कर के स्नाना , तरत पिढ़ी है नर नारा। मेकल कन्या तुम ही रेवा, तुम्हरी भजन करें नित देवा। |
जटा शंकरी नाम तुम्हारा, तुमने कोटि जनों को है तारा। समोद्भवा नर्मदा तुम हो, पाप मोचनी रेवा तुम हो। |
तुम्हरी महिमा कहि नहीं जाई, करत न बनती मातु बड़ाई। जल प्रताप तुममें अति माता, जो रमणीय तथा सुख दाता। |
चाल सर्पिणी सम है तुम्हारी, महिमा अति अपार है तुम्हारी। तुम में पड़ी अस्थि भी भारी, छुवत पाषाण होत वर वारि। |
यमुना मे जो मनुज नहाता, सात दिनों में वह फल पाता। सरस्वती तीन दीनों में देती, गंगा तुरत बाद हीं देती। |
पर रेवा का दर्शन करके मानव फल पाता मन भर के। तुम्हरी महिमा है अति भारी, जिसको गाते हैं नर-नारी। |
जो नर तुम में नित्य नहाता, रुद्र लोक मे पूजा जाता। जड़ी बूटियां तट पर राजें, मोहक दृश्य सदा हीं साजें| |
वायु सुगंधित चलती तीरा, जो हरती नर तन की पीरा। घाट-घाट की महिमा भारी, कवि भी गा नहिं सकते सारी। |
नहिं जानूँ मैं तुम्हरी पूजा, और सहारा नहीं मम दूजा। हो प्रसन्न ऊपर मम माता, तुम ही मातु मोक्ष की दाता। |
जो मानव यह नित है पढ़ता, उसका मान सदा ही बढ़ता। जो शत बार इसे है गाता, वह विद्या धन दौलत पाता। |
अगणित बार पढ़ै जो कोई, पूरण मनोकामना होई। सबके उर में बसत नर्मदा, यहां वहां सर्वत्र नर्मदा । |
दोहा |
भक्ति भाव उर आनि के, जो करता है जाप। माता जी की कृपा से, दूर होत संताप॥ |
॥ इतिश्री नर्मदा चालीसा ॥ |
श्री शारदा चालीसा |
दोहा |
मूर्ति स्वयंभू शारदा, मैहर आन विराज । माला, पुस्तक, धारिणी, वीणा कर में साज ॥ |
चौपाई |
जय जय जय शारदा महारानी, आदि शक्ति तुम जग कल्याणी। रूप चतुर्भुज तुम्हरो माता, तीन लोक महं तुम विख्याता॥ |
दो सहस्त्र वर्षहि अनुमाना, प्रगट भई शारदा जग जाना । मैहर नगर विश्व विख्याता, जहाँ बैठी शारदा जग माता॥ |
त्रिकूट पर्वत शारदा वासा, मैहर नगरी परम प्रकाशा । सर्द इन्दु सम बदन तुम्हारो, रूप चतुर्भुज अतिशय प्यारो॥ |
कोटि सुर्य सम तन द्युति पावन, राज हंस तुम्हरो शचि वाहन। कानन कुण्डल लोल सुहवहि, उर्मणी भाल अनूप दिखावहिं ॥ |
वीणा पुस्तक अभय धारिणी, जगत्मातु तुम जग विहारिणी। ब्रह्म सुता अखंड अनूपा, शारदा गुण गावत सुरभूपा॥ |
हरिहर करहिं शारदा वन्दन, वरुण कुबेर करहिं अभिनन्दन । शारदा रूप कहण्डी अवतारा, चण्ड-मुण्ड असुरन संहारा ॥ |
महिषा सुर वध कीन्हि भवानी, दुर्गा बन शारदा कल्याणी। धरा रूप शारदा भई चण्डी, रक्त बीज काटा रण मुण्डी॥ |
तुलसी सुर्य आदि विद्वाना, शारदा सुयश सदैव बखाना। कालिदास भए अति विख्याता, तुम्हरी दया शारदा माता॥ |
वाल्मीकी नारद मुनि देवा, पुनि-पुनि करहिं शारदा सेवा। चरण-शरण देवहु जग माया, सब जग व्यापहिं शारदा माया॥ |
अणु-परमाणु शारदा वासा, परम शक्तिमय परम प्रकाशा। हे शारद तुम ब्रह्म स्वरूपा, शिव विरंचि पूजहिं नर भूपा॥ |
ब्रह्म शक्ति नहि एकउ भेदा, शारदा के गुण गावहिं वेदा। जय जग वन्दनि विश्व स्वरूपा, निर्गुण-सगुण शारदहिं रूपा॥ |
सुमिरहु शारदा नाम अखंडा, व्यापइ नहिं कलिकाल प्रचण्डा। सुर्य चन्द्र नभ मण्डल तारे, शारदा कृपा चमकते सारे॥ |
उद्भव स्थिति प्रलय कारिणी, बन्दउ शारदा जगत तारिणी। दु:ख दरिद्र सब जाहिंन साई, तुम्हारीकृपा शारदा माई॥ |
परम पुनीत जगत अधारा,मातु, शारदा ज्ञान तुम्हारा। विद्या बुद्धि मिलहिं सुखदानी, जय जय जय शारदा भवानी॥ |
शारदे पूजन जो जन करहिं, निश्चय ते भव सागर तरहीं। शारद कृपा मिलहिं शुचि ज्ञाना, होई सकल्विधि अति कल्याणा॥ |
जग के विषय महा दु:ख दाई, भजहुँ शारदा अति सुख पाई। परम प्रकाश शारदा तोरा, दिव्य किरण देवहुँ मम ओरा॥ |
परमानन्द मगन मन होई, मातु शारदा सुमिरई जोई। चित्त शान्त होवहिं जप ध्याना, भजहुँ शारदा होवहिं ज्ञाना॥ |
रचना रचित शारदा केरी, पाठ करहिं भव छटई फेरी। सत् – सत् नमन पढ़ीहे धरिध्याना, शारदा मातु करहिं कल्याणा॥ |
शारदा महिमा को जग जाना, नेति-नेति कह वेद बखाना। सत् – सत् नमन शारदा तोरा, कृपा द्र्ष्टि कीजै मम ओरा॥ |
जो जन सेवा करहिं तुम्हारी, तिन कहँ कतहुँ नाहि दु:खभारी । जोयह पाठ करै चालीस, मातु शारदा देहुँ आशीषा॥ |
दोहा |
बन्दऊँ शारद चरण रज, भक्ति ज्ञान मोहि देहुँ। सकल अविद्या दूर कर, सदा बसहु उर्गेहुँ। जय-जय माई शारदा, मैहर तेरौ धाम । शरण मातु मोहिं लिजिए, तोहि भजहुँ निष्काम ॥ |
॥ इतिश्री शारदा चालीसा ॥ |
मां शाकंभरी (शाकुम्भरी) देवी चालीसा |
दोहा |
दाहिने भीमा ब्रामरी अपनी छवि दिखाए। बाईं ओर सतची नेत्रों को चैन दीवलए। भूर देव महारानी के सेवक पहरेदार। मां शकुंभारी देवी की जाग मई जे जे कार।। |
चौपाई |
जे जे श्री शकुंभारी माता। हर कोई तुमको सिष नवता।। गणपति सदा पास मई रहते। विघन ओर बढ़ा हर लेते।। |
हनुमान पास बलसाली। अगया टुंरी कभी ना ताली।। मुनि वियास ने कही कहानी। देवी भागवत कथा बखनी।। |
छवि आपकी बड़ी निराली। बढ़ा अपने पर ले डाली।। अखियो मई आ जाता पानी। एसी किरपा करी भवानी।। |
रुरू डेतिए ने धीयां लगाया। वार मई सुंदर पुत्रा था पाया।। दुर्गम नाम पड़ा था उसका। अच्छा कर्म नहीं था जिसका।। |
बचपन से था वो अभिमानी। करता रहता था मनमानी।। योवां की जब पाई अवस्था। सारी तोड़ी धर्म वेवस्था।। |
सोचा एक दिन वेद छुपा लूं। र ब्रममद को दास बना लूं।। देवी-देवता घबरागे। मेरी सरण मई ही आएगे।। |
विष्णु शिव को छोड़ा उसने। ब्रह्माजी को धीयया उसने।। भोजन छोड़ा फल ना खाया। वायु पीकेर आनंद पाया।। |
जब ब्रहाम्मा का दर्शन पाया। संत भाव हो वचन सुनाया।। चारो वेद भक्ति मई चाहू। महिमा मई जिनकी फेलौ।। |
ब्ड ब्रहाम्मा वार दे डाला। चारों वेद को उसने संभाला।। पाई उसने अमर निसनी। हुआ प्रसन्न पाकर अभिमानी।। |
जैसे ही वार पाकर आया। अपना असली रूप दिखाया।। धर्म धूवजा को लगा मिटाने। अपनी शक्ति लगा बड़ाने।। |
बिना वेद ऋषि मुनि थे डोले। पृथ्वी खाने लगी हिचकोले।। अंबार ने बरसाए शोले। सब त्राहि-त्राहि थे बोले।। |
सागर नदी का सूखा पानी। कला दल-दल कहे कहानी।। पत्ते बी झड़कर गिरते थे। पासु ओर पाक्सी मरते थे।। |
सूरज पतन जलती जाए। पीने का जल कोई ना पाए।। चंदा ने सीतलता छोड़ी। समाए ने भी मर्यादा तोड़ी।। |
सभी डिसाए थे मतियाली। बिखर गई पूज की तली।। बिना वेद सब ब्रहाम्मद रोए। दुर्बल निर्धन दुख मई खोए।। |
बिना ग्रंथ के कैसे पूजन। तड़प रहा था सबका ही मान।। दुखी देवता धीयां लगाया। विनती सुन प्रगती महामाया।। |
मा ने अधभूत दर्श दिखाया। सब नेत्रों से जल बरसाया।। हर अंग से झरना बहाया। सतची सूभ नाम धराया।। |
एक हाथ मई अन्न भरा था। फल भी दूजे हाथ धारा था।। तीसरे हाथ मई तीर धार लिया। चोथे हाथ मई धनुष कर लिया।। |
दुर्गम रक्चाश को फिर मारा। इस भूमि का भार उतरा।। नदियों को कर दिया समंदर। लगे फूल-फल बाग के अंदर।। |
हारे-भरे खेत लहराई। वेद ससत्रा सारे लोटाय।। मंदिरो मई गूंजी सांख वाडी। |
हारे-भरे खेत लहराई। वेद ससत्रा सारे लोटाय।। मंदिरो मई गूंजी सांख वाडी। हर्षित हुए मुनि जान पड़ी।। |
अन्न-धन साक को देने वाली। सकंभारी देवी बलसाली।। नो दिन खड़ी रही महारानी। सहारनपुर जंगल मई निसनी।। |
॥ इतिश्री शाकंभरी चालीसा ॥ |
श्री ललिता माता चालीसा |
चौपाई |
जयति-जयति जय ललिते माता। तव गुण महिमा है विख्याता।। तू सुन्दरी, त्रिपुरेश्वरी देवी। सुर नर मुनि तेरे पद सेवी।। |
तू कल्याणी कष्ट निवारिणी। तू सुख दायिनी, विपदा हारिणी।। मोह विनाशिनी दैत्य नाशिनी। भक्त भाविनी ज्योति प्रकाशिनी।। |
आदि शक्ति श्री विद्या रूपा। चक्र स्वामिनी देह अनूपा।। हृदय निवासिनी-भक्त तारिणी। नाना कष्ट विपति दल हारिणी।। |
दश विद्या है रूप तुम्हारा। श्री चन्द्रेश्वरी नैमिष प्यारा।। धूमा, बगला, भैरवी, तारा। भुवनेश्वरी, कमला, विस्तारा।। |
षोडशी, छिन्न्मस्ता, मातंगी। ललितेशक्ति तुम्हारी संगी।। ललिते तुम हो ज्योतित भाला। भक्तजनों का काम संभाला।। |
भारी संकट जब-जब आए। उनसे तुमने भक्त बचाए।। जिसने कृपा तुम्हारी पाई। उसकी सब विधि से बन आई।। |
संकट दूर करो मां भारी। भक्तजनों को आस तुम्हारी।। त्रिपुरेश्वरी, शैलजा, भवानी। जय-जय-जय शिव की महारानी।। |
योग सिद्धि पावें सब योगी। भोगें भोग महा सुख भोगी।। कृपा तुम्हारी पाके माता। जीवन सुखमय है बन जाता।। |
दुखियों को तुमने अपनाया। महा मूढ़ जो शरण न आया।। तुमने जिसकी ओर निहारा। मिली उसे संपत्ति, सुख सारा।। |
आदि शक्ति जय त्रिपुर प्यारी। महाशक्ति जय-जय, भय हारी।। कुल योगिनी, कुंडलिनी रूपा। लीला ललिते करें अनूपा।। |
महा-महेश्वरी, महाशक्ति दे। त्रिपुर-सुन्दरी सदा भक्ति दे।। महा महा-नन्दे कल्याणी। मूकों को देती हो वाणी।। |
इच्छा-ज्ञान-क्रिया का भागी। होता तब सेवा अनुरागी।। जो ललिते तेरा गुण गावे। उसे न कोई कष्ट सतावे।। |
सर्व मंगले ज्वाला-मालिनी। तुम हो सर्वशक्ति संचालिनी।। आया मां जो शरण तुम्हारी। विपदा हरी उसी की सारी।। |
नामा कर्षिणी, चिंता कर्षिणी। सर्व मोहिनी सब सुख-वर्षिणी।। महिमा तव सब जग विख्याता। तुम हो दयामयी जग माता।। |
सब सौभाग्य दायिनी ललिता। तुम हो सुखदा करुणा कलिता।। आनंद, सुख, संपत्ति देती हो। कष्ट भयानक हर लेती हो।। |
मन से जो जन तुमको ध्यावे। वह तुरंत मन वांछित पावे।। लक्ष्मी, दुर्गा तुम हो काली। तुम्हीं शारदा चक्र-कपाली।। |
मूलाधार, निवासिनी जय-जय। सहस्रार गामिनी मां जय-जय।। छ: चक्रों को भेदने वाली। करती हो सबकी रखवाली।। |
योगी, भोगी, क्रोधी, कामी। सब हैं सेवक सब अनुगामी।। सबको पार लगाती हो मां। सब पर दया दिखाती हो मां।। |
हेमावती, उमा, ब्रह्माणी। भण्डासुर की हृदय विदारिणी।। सर्व विपति हर, सर्वाधारे। तुमने कुटिल कुपंथी तारे।। |
चन्द्र-धारिणी, नैमिश्वासिनी। कृपा करो ललिते अधनाशिनी।। भक्तजनों को दरस दिखाओ। संशय भय सब शीघ्र मिटाओ।। |
जो कोई पढ़े ललिता चालीसा। होवे सुख आनंद अधीसा।। जिस पर कोई संकट आवे। पाठ करे संकट मिट जावे।। |
ध्यान लगा पढ़े इक्कीस बारा। पूर्ण मनोरथ होवे सारा।। पुत्रहीन संतति सुख पावे। निर्धन धनी बने गुण गावे।। |
इस विधि पाठ करे जो कोई। दु:ख बंधन छूटे सुख होई।। जितेन्द्र चन्द्र भारतीय बतावें। पढ़ें चालीसा तो सुख पावें।। |
सबसे लघु उपाय यह जानो। सिद्ध होय मन में जो ठानो।। ललिता करे हृदय में बासा। सिद्धि देत ललिता चालीसा।। |
दोहा |
ललिते मां अब कृपा करो सिद्ध करो सब काम। श्रद्धा से सिर नाय करे करते तुम्हें प्रणाम।। |
॥ इतिश्री ललिता माता चालीसा ॥ |
श्री राणी सती जी की चालीसा |
दोहा |
श्री गुरु पद पंकज नमन, दुषित भाव सुधार, राणी सती सू विमल यश, बरणौ मति अनुसार, काम क्रोध मद लोभ मै, भरम रह्यो संसार, शरण गहि करूणामई, सुख सम्पति संसार॥ |
चौपाई |
नमो नमो श्री सती भवानी, जग विख्यात सभी मन मानी | नमो नमो संकट कू हरनी, मनवांछित पूरण सब करनी ॥ |
नमो नमो जय जय जगदंबा, भक्तन काज न होय विलंबा | नमो नमो जय जय जगतारिणी, सेवक जन के काज सुधारिणी ॥ |
दिव्य रूप सिर चूनर सोहे, जगमगात कुन्डल मन मोहे | मांग सिंदूर सुकाजर टीकी, गजमुक्ता नथ सुंदर नीकी ॥ |
गल वैजंती माल विराजे, सोलहूं साज बदन पे साजे । धन्य भाग गुरसामलजी को, महम डोकवा जन्म सती को ॥ |
तनधनदास पति वर पाये, आनंद मंगल होत सवाये | जालीराम पुत्र वधु होके, वंश पवित्र किया कुल दोके ॥ |
पति देव रण मॉय जुझारे, सति रूप हो शत्रु संहारे। पति संग ले सद् गती पाई , सुर मन हर्ष सुमन बरसाई ॥ |
धन्य भाग उस राणा जी को, सुफल हुवा कर दरस सती का। विक्रम तेरह सौ बावन कूं, मंगसिर बदी नौमी मंगल कूं ॥ |
नगर झून्झूनू प्रगटी माता, जग विख्यात सुमंगल दाता | दूर देश के यात्री आवै, धुप दिप नैवैध्य चढावे ॥ |
उछाङ उछाङते है आनंद से, पूजा तन मन धन श्रीफल से | जात जङूला रात जगावे, बांसल गोत्री सभी मनावे॥ |
पूजन पाठ पठन द्विज करते, वेद ध्वनि मुख से उच्चरते | नाना भाँति भाँति पकवाना, विप्र जनो को न्यूत जिमाना ॥ |
श्रद्धा भक्ति सहित हरसाते, सेवक मनवांछित फल पाते | जय जय कार करे नर नारी, श्री राणी सतीजी की बलिहारी ॥ |
द्वार कोट नित नौबत बाजे, होत सिंगार साज अति साजे | रत्न सिंघासन झलके नीको, पलपल छिनछिन ध्यान सती को ॥ |
भाद्र कृष्ण मावस दिन लीला, भरता मेला रंग रंगीला | भक्त सूजन की सकल भीङ है, दरशन के हित नही छीङ है ॥ |
अटल भुवन मे ज्योति तिहारी, तेज पूंज जग मग उजियारी | आदि शक्ति मे मिली ज्योति है, देश देश मे भवन भौति है ॥ |
नाना विधी से पूजा करते, निश दिन ध्यान तिहारो धरते | कष्ट निवारिणी दुख: नासिनी, करूणामयी झुन्झुनू वासिनी ॥ |
प्रथम सती नारायणी नामा, द्वादश और हुई इस धामा | तिहूं लोक मे कीरति छाई, राणी सतीजी की फिरी दुहाई ॥ |
सुबह शाम आरती उतारे, नौबत घंटा ध्वनि टंकारे | राग छत्तीसों बाजा बाजे, तेरहु मंड सुन्दर अति साजे ॥ |
त्राहि – त्राहि मै शरण आपकी, पुरी मन की आस दास की | मुझको एक भरोसो तेरो, आन सुधारो मैया कारज मेरो ॥ |
पूजा जप तप नेम न जानू, निर्मल महिमा नित्य बखानू | भक्तन की आपत्ति हर लिनी, पुत्र – पौत्र सम्पत्ति वर दीनी ॥ |
पढे चालीसा जो शतबारा, होय सिद्ध मन माहि विचारा | टिबरिया ली शरण तिहारी, क्षमा करो सब चूक हमारी ॥ |
दोहा |
दुख आपद विपदा हरण, जन जीवन आधार | बिगङी बात सुधारियो, सब अपराध बिसार ॥ |
॥ इतिश्री राणी सती जी चालीसा ॥ |