इसमें कोई संदेह नहीं की आज तक जितने भी कार्य सिद्ध हुए हैं, उनमे व्यक्ति की साधना और संकल्प शक्ति का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा हैं, संकल्पवान व्यक्ति ही किसी भी प्रकार की हकदार है और अपने लछ्य को पाने की योग्यिता रखता है, वह जिस कार्य को हाथ में लेता है, उसे पूरे मन और बुद्धि से पूर्ण करने के लिए अडिग व् एकनिष्ठ होता हैं।
संकल्प वह लो जो बहुत छोटा हो और जिसे पूर्ण करने में किसी प्रकार की अलग से शक्ति ना लगानी पडे, बिना संकल्प के भजन आगे नही बढता, अगर भगवत भजन में आगे बढना है तो नियम चाहिये, संकल्प चाहिये, संकल्प से सोई हुई शक्तियाँ उठती हैं, जागती है।
जनम कोटि लगि रगर हमारी। बरहु संभु न त रहहुँ कुआँरी।।
संकल्प से भीतर की शक्तियाँ जगती है, हम संसार के भोगों को प्राप्त करने के लिये संकल्प लेते हैं, परमात्मा को सुविधा से प्राप्त करना चाहते हैं, संसार के भोगों के लिये हम जीवन को जोखिम में डालते है परन्तु परमात्मा को केवल सोफे पर बैठकर प्राप्त करना चाहते हैं।
मीराबाई ने कहा है मेरा ठाकुर सरल तो है पर सस्ता नहीं, सज्जनों! सुविधा से नहर चलती है संकल्प से नदियाँ दौड़ा करती हैं, नहर बनने के लिये पूरी योजना बनेगी, नक्शा बनेगा लेकिन दस-पंद्रह किलोमीटर जाकर समाप्त हो जाती है, पर संकल्प से नदी चलती है, उसका संकल्प है महासागर से मिलना, वो नहीं जानती सागर किधर है?
कोई मानचित्र लेकर नहीं बैठा, कोई मार्ग दर्शक नहीं, अन्धकार में चल दी सागर की ओर दौड़ी जा रही है, बड़ी बड़ी चट्टानों से टकराती, शिखरों को ढहाती, बड़ी-बड़ी गहरी खाइयों को पाटती जा रही है, संकल्प के साथ एक दिन नदी सागर से जाकर मिल जाती है।
अगर सागर के मार्ग में पहाड के शिखर ना आये, रेगिस्तान के टीले ना आयें तो नदी भी शायद खो जाये, ये बाधायें नदी के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करते अपितु और इससे ऊर्जा मिलती है, साधक के जीवन में जो कुछ कठिनाईयाँ आती हैं वो साधना को खंडित नहीं करती बल्कि साधना और तीक्ष्ण व पैनी हो जाया करती है।
जिनको साधना के मार्ग पर चलना है उनको पहले संकल्प चाहिये, संकल्प को पूरा करने के लिये सातत्य यानी निरंतरता चाहिये, ऐसा नही है कि एक दो दिन माला जप ली और फिर चालीस दिन कहीं खो गये, साधना शुरू करने के बाद अगर एक दिन भी खंडित हो गयी तो फिर प्रारम्भ से शुरूआत करनी पडेगी, यह साधना का नियम है, इसलिये सतत-सतत-सतत।
ऐसा नियम बनाइये जिसको पालन कर सके, कई लोग कहते है भजन में मन नहीं लगता, क्या इसके लिये आपने कोई संकल्प किया है कि मन लगे, इसकी कोई पीडा, दर्द या बेचैनी है आपके अन्दर, कभी ऐसा किया है आपने कि आज भजन नहीं किया तो फिर आज भोजन भी नहीं करेंगे, मौन रखेंगे, आज भजन छूट गया आज सोयेंगे नहीं।
कभी ऐसी पीडा पैदा की है क्या? संकल्प बना रहे इसकी सुरक्षा चाहिये, छोटे पौधे लगाते हैं उनकी रक्षा के लिये बाड बनाते हैं, देखभाल करते हैं, वैसे ही भजन के पौधे की सुरक्षा करनी चाहिये कहीं कोई ताप न जला दे, कहीं वासना की बकरी उसे कुतर ना दे, जिनको भजन के मार्ग पर चलना हो सिर्फ, इस पर चलें।
दो नावों पर पैर न रखें, इससे जीवन डूब जाता है, अन्धकार में पूरे डूबे या फिर प्रकाश की ओर चलना है तो सिर्फ प्रकाश की ओर चलो, ऐसा नहीं हो सकता कि भोग भी भोगें और भगवान् भी प्राप्त हो जायें।
हमारी दशा ऐसी है घर में रोज बुहारी लगा रहे है कूड़ा बाहर डालते हैं, दरवाजे खुले रखे, हवा का झोंका आया कूड़ा सारा अन्दर आ गया, फिर बुहारी, फिर कूड़ा बाहर, फिर कूड़ा अन्दर, बस यही चलता रहता है हमारी जिन्दगी में, सारा जीवन चला जाता है, एक हाथ में बुहारी और एक हाथ में कूड़ा।
सीढ़ी पर या तो ऊपर की ओर चढ़ो या नीचे की ओर, दोनो ओर नहीं चल सकते, घसीटन हो जायेगी, दोस्तों! हमारा अनुभव कहता है कि हमारा जीवन भजन के नाम पर घसीटन है, भजन की सुरक्षा चाहिये, ऐसा नही हो सकता कि प्रातः काल शिवालय हो आये और सायं काल मदिरालय, सुबह गीता पढी और शाम को मनोहर कहानियाँ, ये नहीं हो सकता।
तो आत्म निरीक्षण किया करों कि मेरा नियम नहीं टूटे, मैं प्रारम्भ से कह रहा हूँ कि इसकी पूरी एक आचार संहिता है, कोई न कोई नियम बनाओ, नियम से निष्ठा पैदा होती है, निष्ठा से रूचि बढती है, रूचि से भजन में आसक्ति होने लगती है आसक्ति से फिर राग हो जाता है, राग से अनुराग होता है और अनुराग से भाव, ये भाव ही परमात्मा के प्रेम में परिवर्तित हो जाता हैं।
ये पूरी की पूरी सीढ़ी है, नियम से प्रारम्भ करिये और प्रेम के शिखर तक पहुँच जाइये, किसी को कोई दोष मत दिजिये कि मेरा नियम क्यों टूटा, आत्म निरीक्षण किजिये कि मेरा नियम क्यों टूटा?
नियम कहे नहीं जाते, घोषित नहीं होते, भजन को जितना छुपाओगे उतना सफल रहोगे, इसलिए नियम बनाइयें और ख्याल रखें कि नियम कभी खंडित ना हो।